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यु॒वꣳ सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑। वि॒पि॒पा॒ना शु॑भस्पती॒ऽइन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम् ॥३३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम्। सु॒राम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑। वि॒पि॒पा॒नेति॑ विऽपि॒पा॒ना। शु॒भः॒। प॒ती॒ऽइति॑ पती। इन्द्र॑म्। कर्म॒स्विति॒ कर्म॑ऽसु। आ॒व॒त॒म् ॥३३॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:33


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभा और सेनापति प्रयत्न से वैश्यों की रक्षा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सचा) मिले हुए (विपिनाना) विविध राज्य के रक्षक (शुभः) कल्याणकारक व्यवहार के (पती) पालन करनेहारे (अश्विना) सूर्य्य-चन्द्रमा के समान सभापति और सेनापति (युवम्) तुम दोनों (नमुचौ) जो अपने दुष्ट कर्म को न छोड़े (आसुरे) मेघ के व्यवहार में (कर्मसु) खेती आदि कर्मों में वर्त्तमान (सुरामम्) अच्छी तरह जिस में रमण करें, ऐसे (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवाले धनी की निरन्तर (आवतम्) रक्षा करो ॥३३॥
भावार्थभाषाः - दुष्टों से श्रेष्ठों की रक्षा के लिये ही राजा होता है। राज्य की रक्षा के विना किसी चेष्टावान् नर की कार्य में निर्विघ्न प्रवृत्ति कभी नहीं हो सकती और न प्रजाजनों के अनुकूल हुए विना राजपुरुषों की स्थिरता होती है। इसलिये वन के सिंहों के समान परस्पर सहायी होके सब राज और प्रजा के मनुष्य सदा आनन्द में रहें ॥३३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभासेनेशाभ्यां प्रयत्नतो वणिग्जनाः संरक्ष्या इत्याह ॥

अन्वय:

(युवम्) युवाम् (सुरामम्) सुष्ठु रमन्ते यस्मिन् तम् (अश्विना) सूर्य्यचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ (नमुचौ) न मुञ्चति स्वकीयं कर्म यस्तस्मिन् (आसुरे) असुरस्य मेघस्याऽयं व्यवहारस्तस्मिन्। असुर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (सचा) सत्यसमवेतौ (विपिपाना) विविधं राज्यं रक्षमाणौ (शुभः) कल्याणकरस्य व्यवहारस्य (पती) पालयितारौ (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं धनिकम् (कर्मसु) कृष्यादिक्रियासु प्रवर्त्तमानम् (आवतम्) रक्षतम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.५.४.२५) व्याख्यातः ॥३३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सचाः विपिपाना शुभस्पती अश्विना युवं नमुचावासुरे कर्मसु वर्त्तमानं सुराममिन्द्रं सततमावतम् ॥३३॥
भावार्थभाषाः - दुष्टेभ्यः श्रेष्ठानां रक्षणायैव राजभावः प्रवर्त्तते। नहि राजरक्षणेन विना कस्यचित् कर्मचारिणः कर्मणि निर्विघ्नेन प्रवृत्तिर्भवितुं योग्याऽस्ति, न च खलु प्रजाजनाऽनुकूल्यमन्तरा राजपुरुषाणां सुस्थिरता जायते, तस्माद् वनसिंहवत् परस्परं सहायेन सर्वे राजप्रजाजनाः सदा सुखिनः स्युः ॥३३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा हा दुष्टांपासून सज्जनांचे रक्षण करण्यासाठीच असतो. राजाकडून रक्षण होत नसेल तर कोणताही प्रयत्नवादी मनुष्य निर्विघ्नपणे काम करू शकत नाही. प्रजेच्या अनुकूलतेशिवाय राजपुरुष स्थिर राहू शकत नाही त्यासाठी (वनातील सिंहाप्रमाणे) परस्पर साह्य करून राजा व प्रजा यांनी आनंदात राहावे.