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प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ रू॒पाणि॒ परि॒ ता बभू॑व। यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ऽअस्त्व॒यम॒मुष्य॑ पि॒ताऽसाव॒स्य पि॒ता व॒यꣳ स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णा स्वाहा॑। रुद्र॒ यत्ते॒ क्रिवि॒ परं॒ नाम॒ तस्मि॑न् हु॒तम॑स्यमे॒ष्टम॑सि॒ स्वाहा॑ ॥२०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रजा॑पत॒ इति॒ प्रजा॑ऽपते। न। त्वत्। ए॒तानि॑। अ॒न्यः। विश्वा॑। रू॒पाणि॑। परि॑। ता। ब॒भू॒व॒। यत्का॑मा॒ इति॒ यत्ऽका॑माः। ते॒। जु॒हु॒मः। तत्। नः॒। अ॒स्तु॒। अ॒यम्। अ॒मुष्य॑। पि॒ता। अ॒सौ। अ॒स्य। पि॒ता। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम्। स्वाहा॑। रुद्र॑। यत्। ते॒। क्रिवि॑। पर॑म्। नाम॑। तस्मि॑न्। हु॒तम्। अ॒सि॒। अ॒मे॒ष्टमित्य॑माऽइ॒ष्टम्। अ॒सि॒। स्वाहा॑ ॥२०॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा पालने से सब कामनाओं को प्राप्त हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रजापते) प्रजा के स्वामी ईश्वर ! जो (एतानि) जीव, प्रकृति आदि वस्तु (विश्वा) सब (रूपाणि) इच्छा, रूप आदि गुणों से युक्त हैं (ता) उनके ऊपर आप से (अन्यः) दूसरा कोई (न) नहीं (परिबभूव) जान सकता (ते) आप के सेवन से (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले होते हुए (वयम्) हम लोग (जुहुमः) आपका सेवन करते हैं, वह-वह पदार्थ आपकी कृपा से (नः) हम लोगों के लिये (अस्तु) प्राप्त होवे। जैसे आप (अमुष्य) उस परोक्ष जगत् के (पिता) रक्षा करनेहारे हैं, (असौ) सो आप इस प्रत्यक्ष जगत् के रक्षक हैं, वैसे हम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से (रयीणाम्) विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य आदि से उत्पन्न हुई लक्ष्मी के (पतयः) रक्षा करनेवाले (स्याम) हों। हे (रुद्र) दुष्टों को रुलानेहारे परमेश्वर ! (ते) आप का जो (क्रिवि) दुःखों से छुड़ाने का हेतु (परम्) उत्तम (नाम) नाम है, (तस्मिन्) उसमें आप (हुतम्) स्वीकार किये (असि) हैं, (अमेष्टम्) घर में इष्ट (असि) हैं, उन आप को हम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से ग्रहण करते हैं ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो सब जगत् में व्याप्त, सब के लिये माता-पिता के समान वर्त्तमान, दुष्टों को दण्ड देनेहारा, उपासना करने को इष्ट है, उसी जगदीश्वर की उपासना करो। इस प्रकार के अनुष्ठान से तुम्हारी सब कामना अवश्य सिद्ध हो जायेंगीं ॥२०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरीश्वरोपासनाऽऽज्ञापालनेन सर्वाः कामनाः प्राप्तव्या इत्याह ॥

अन्वय:

(प्रजापते) प्रजायाः स्वामिन्नीश्वर ! (न) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (एतानि) जीवप्रकृत्यादीनि वस्तूनि (अन्यः) भिन्नः पदार्थः (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) इच्छारूपादिगुणविशिष्टानि (परि) (ता) तानि (बभूव) अस्ति (यत्कामाः) यस्य यस्य कामः कामना येषां ते (ते) तव (जुहुमः) गृह्णीमः (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) भवतु (अयम्) (अमुष्य) प्रत्यक्षस्य जनस्य (पिता) पालकः (असौ) सः (अस्य) प्रत्यक्षवर्त्तमानस्य (पिता) रक्षकः (वयम्) (स्याम) भवेम (पतयः) स्वामिनः पालकाः (रयीणाम्) विद्याचक्रवर्त्तिराज्योत्पन्नश्रियाम् (स्वाहा) सत्यया क्रियया (रुद्र) दुष्टानां रोदयितः (यत्) (ते) तव (क्रिवि) कृणोति हिनस्ति येन तत्, नकारस्थाने वर्णव्यत्ययेनेकारः (परम्) प्रकृष्टम् (नाम) (तस्मिन्) (हुतम्) स्वीकृतम् (असि) (अमेष्टम्) अमायां गृहे इष्टम् (असि) (स्वाहा) सत्यया वाचा ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.२.८.१०) व्याख्यातः ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजापते ! यान्येतानि विश्वा रूपाणि सन्ति, तानि त्वदन्यो न परिबभूव। ते तव सकाशाद् यत्कामाः सन्तो वयं जुहुमस्तत् तव कृपया नोऽस्तु, यथा त्वममुष्य परोक्षस्य जगतः पिताऽसौ भवानस्य समक्षस्य विश्वस्य पिताऽसि, तथा वयं स्वाहा रयीणां पतयः स्याम। हे रुद्र ! ते तव यत् क्रिवि परं नामाऽस्ति यस्मिंस्त्वं हुतमस्यमेष्टमसि तं वयं स्वाहा जुहुमः ॥२०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यः सर्वस्मिन् जगति व्याप्तः सर्वान् प्रति मातापितृवद् वर्त्तमानो दुष्टदण्डक उपासितुमिष्टोऽस्ति, तं जगदीश्वरमेवोपाध्वम्। एवमनुष्ठानेन युष्माकं सर्वे कामा अवश्यं सेत्स्यन्ति ॥२०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो सर्व जगात व्याप्त आहे, सर्वांना माता व पित्यासमान आहे, दुष्टांना दंड देणारा आहे तोच उपासना करण्यायोग्य असल्यामुळे त्याचीच उपासना करा. या प्रकारच्या अनुष्ठानाने तुमच्या सर्व कामना सिद्ध होतील.