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सोमस्य॑ त्वा द्यु॒म्नेना॒भिषि॑ञ्चाम्य॒ग्नेर्भ्राज॑सा॒ सूर्य॑स्य॒ वर्च॒सेन्द्र॑स्येन्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणां॑ क्ष॒त्रप॑तिरे॒ध्यति॑ दि॒द्यून् पा॑हि ॥१७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सोम॑स्य। त्वा॒। द्यु॒म्नेन॑। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। अ॒ग्नेः। भ्राज॑सा। सूर्य॑स्य। वर्च॑सा। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणा॑म्। क्ष॒त्रप॑ति॒रिति॑ क्ष॒त्रऽप॑तिः। ए॒धि॒। अति॑। दि॒द्यून्। पा॒हि॒ ॥१७॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पूर्वोक्त कार्य्यों की प्रवृत्ति के लिये कैसे पुरुष को राज्याऽधिकार देना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रशंसित गुण, कर्म और स्वभाववाले राजा ! जैसे मैं जिस तुझ को (सोमस्य) चन्द्रमा के समान (द्युम्नेन) यशरूप प्रकाश से (अग्नेः) अग्नि के समान (भ्राजसा) तेज से (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के समान (वर्चसा) पढ़ने से और (इन्द्रस्य) बिजुली के समान (इन्द्रियेण) मन आदि इन्द्रियों के सहित (त्वा) आपको (अभिषिञ्चामि) राज्याधिकारी करता हूँ, वैसे वे आप (क्षत्राणाम्) क्षत्रिय कुल में जो उत्तम हों, उनके बीच (क्षत्रपतिः) राज्य के पालनेहारे (अत्येधि) अति तत्पर हूजिये और (दिद्यून्) विद्या तथा धर्म का प्रकाश करनेहारे व्यवहारों की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो शान्ति आदि गुणयुक्त जितेन्द्रिय विद्वान् पुरुष हैं, उसको राज्य का अधिकार देवें और उस राजा को चाहिये कि राज्याऽधिकार को प्राप्त हो अतिश्रेष्ठ होता हुआ विद्या और धर्म आदि के प्रकाश करनेहारे प्रजापुरुषों को निरन्तर बढ़ावे ॥१७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

एतत्प्रवृत्तये कीदृशो राजाभिषेचनीय इत्याह ॥

अन्वय:

(सोमस्य) चन्द्रस्येव (त्वा) (द्युम्नेन) यशःप्रकाशेन (अभि) आभिमुख्ये (सिञ्चामि) अधिकरोमि (अग्नेः) अग्नितुल्येन (भ्राजसा) तेजसा (सूर्य्यस्य) सवितुरिव (वर्चसा) अध्ययनेन (इन्द्रस्य) विद्युत इव (इन्द्रियेण) मनआदिना (क्षत्राणाम्) क्षत्रकुलोद्गतानाम् (क्षत्रपतिः) (एधि) भव (अति) (दिद्यून्) विद्याधर्मप्रकाशकान् व्यवहारान् (पाहि) सततं रक्ष ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.२.२) व्याख्यातः ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रशस्तगुणकर्मस्वभावयुक्त राजन् ! यथाऽहं यं त्वा त्वां सोमस्येव द्युम्नेनाग्नेरिव भ्राजसा सूर्य्यस्येव वर्चसेन्द्रस्येवेन्द्रियेण त्वाऽभिषिञ्चामि, तथा स त्वं क्षत्राणां क्षत्रपतिरत्येधि दिद्यून् पाहि ॥१७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यः सोमादिगुणयुक्तो विद्वान् जितेन्द्रियो जनो भवेत् तं राजत्वे स्वीकुर्वन्तु। स च राज्यं प्राप्यातिप्रवृद्धः सन् विद्याधर्मप्रकाशकान् राजप्रजाजनान् सततमतिवर्द्धयेत् ॥१७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी शांत, जितेन्द्रिय व विद्वान पुरुषाला राज्याचा अधिकार द्यावा. राजानेही राज्याधिकार प्राप्त झाल्यावर श्रेष्ठ बनून विद्या व धर्माचा प्रचार करावा आणि प्रजेची सदैव उन्नती करावी.