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हिर॑ण्यरूपाऽउ॒षसो॑ विरो॒कऽउ॒भावि॑न्द्रा॒ऽउदि॑थः॒ सूर्यश्च॑। आरो॑हतं वरुण मित्र॒ गर्त्तं॒ तत॑श्चक्षाथा॒मदि॑तिं॒ दितिं॑ च। मि॒त्रो᳖ऽसि॒ वरु॑णोऽसि ॥१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हिर॑ण्यरूपा॒विति हिर॑ण्यऽरूपौ। उ॒षसः॑। वि॒रो॒क इति॑ विऽरो॒के। उ॒भौ। इ॒न्द्रौ॒। उत्। इ॒थः॒। सूर्यः॑। च॒। आ। रो॒ह॒त॒म्। व॒रु॒ण॒। मि॒त्र॒। गर्त्त॑म्। ततः॑। च॒क्षा॒था॒म्। अदि॑तिम् दिति॑म्। च॒। मि॒त्रः। अ॒सि॒। वरु॑णः। अ॒सि॒ ॥१६॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों को चाहिये कि आप निष्कपट हो और अज्ञानी पुरुषों के लिये सत्य का उपदेश करके उनको बुद्धिमान् विद्वान् बनावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपदेश करनेहारे (मित्र) सब के सुहृद् ! जिसलिये आप (मित्रः) सुख देनेवाले (असि) हैं तथा हे (वरुण) शत्रुओं को मारनेहारे बलवान् सेनापति ! जिसलिये आप (वरुणः) सबसे उत्तम (असि) हैं, इसलिये आप दोनों (गर्त्तम्) उपदेश करनेवाले के घर पर (आरोहतम्) जाओ (अदितिम्) अविनाशी (च) और (दितिम्) नाशवान् पदार्थों का (चक्षाथाम्) उपदेश करो। हे (हिरण्यरूपौ) प्रकाशस्वरूप (उभौ) दोनों (इन्द्रौ) परमैश्वर्य्य करनेहारे जैसे (विरोके) विविध प्रकार की रुचि करानेहारे व्यवहार में (सूर्य्यः) सूर्य्य (च) और चन्द्रमा (उषसः) प्रातः और निशा काल के अवयवों को प्रकाशित करते हैं, वैसे तुम दोनों जन (उदिथः) विद्याओं का उपदेश करो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जिस देश में सूर्य्य-चन्द्रमा के समान उपदेश करनेहारे व्याख्यानों से सब विद्याओं का प्रकाश करते हैं, वहाँ सत्याऽसत्य पदार्थों के बोध से सहित होके कोई भी विद्याहीन होकर भ्रम में नहीं पड़ता। जहाँ यह बात नहीं होती, वहाँ अन्धपरम्परा में फँसे हुए मनुष्य नित्य ही क्लेश पाते हैं ॥१६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्भिर्निष्कपटतयाऽज्ञाः सत्यमुपदिश्य विद्वांसो मेधाविनः संपादनीया इत्याह ॥

अन्वय:

(हिरण्यरूपौ) ज्योतिःस्वरूपौ (उषसः) प्रभातान् (विरोके) विविधतया रुचिकरे व्यवहारे (उभौ) (इन्द्रौ) परमैश्वर्य्यकारकौ (उत्) (इथः) प्राप्नुथः (सूर्य्यः) (च) चन्द्र इव (आ) (रोहतम्) (वरुण) शत्रुच्छेदक उत्कृष्टसेनापते (मित्र) सर्वस्य सुहृत् (गर्तम्) उपदेशकगृहम्। गर्त्त इति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (ततः) तदनन्तरम् (चक्षाथाम्) उपदिशेताम् (अदितिम्) अविनाशिनं पदार्थम् (दितिम्) नाशवन्तम् (च) (मित्रः) सुखप्रदः (असि) (वरुणः) सर्वोत्तमः (असि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.१.१५-१७) व्याख्यातः ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपदेशक मित्र ! यतस्त्वं मित्रोऽसि। हे वरुण ! यतस्त्वं वरुणोऽसि ततस्तौ युवां गर्त्तमारोहतम्। अदितिं दितिं च चक्षाथाम्। हे हिरण्यरूपावुभाविन्द्रौ यथा विरोके सूर्य्यश्चन्द्रश्चोषसो विभातस्तथा युवामुदिथो विद्याः प्रभातम् ॥१६॥
भावार्थभाषाः - यत्र देशे सूर्य्यचन्द्रवदुपदेशका व्याख्यानैः सर्वा विद्याः प्रकाशयन्ति, तत्र सत्याऽसत्यपदार्थबोधेन सहितत्वात् कश्चिदप्यविद्यया न विमुह्यति, यत्रेदं न भवति तत्राऽन्धपरम्पराग्रस्ता जनाः प्रत्यहमवनतिं प्राप्नुवन्ति ॥१६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या देशात सूर्य-चंद्रासारखे उपदेशक आपल्या उपदेशाने सर्व विद्या प्रकट करतात तेथेच सत्य व असत्य पदार्थांचा बोध होतो व कोणीही अविद्येच्या भ्रमात अडकत नाही. जेथे ही गोष्ट नसते तेथे माणसे अंधश्रद्धेमुळे सदैव त्रास भोगतात.