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प्र॒तीची॒मारो॑ह॒ जग॑ती त्वावतु वैरू॒पꣳ साम॑ सप्तद॒श स्तोमो॑ व॒र्षाऽऋ॒तुर्विड् द्रवि॑णम् ॥१२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र॒तीची॑म्। आ। रो॒ह॒। जग॑ती। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। वै॒रू॒पम्। साम॑। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स्तोमः॑। व॒र्षाः। ऋ॒तुः। विट्। द्रवि॑णम् ॥१२॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजपुरुषों को चाहिये कि वैश्य कुल को नित्य बढ़ावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुष ! जिस (त्वा) आप को (जगती) जगती छन्द में कहा हुआ अर्थ (वैरूपम्) विविध प्रकार के रूपोंवाला (साम) सामवेद का अंश (सप्तदशः) पाँच कर्म इन्द्रिय; पाँच शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध विषय; पाँच महाभूत अर्थात् सूक्ष्म भूत, कार्य्य और कारण इन सत्रह का पूरण करनेवाला (स्तोमः) स्तुतियों का समूह (वर्षाः) वर्षा (ऋतुः) ऋतु (द्रविणम्) द्रव्य और (विट्) वैश्यजन (अवतु) प्राप्त हों। सो आप (प्रतीचीम्) पश्चिम दिशा को (आरोह) आरूढ़ और धन को प्राप्त हूजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जो राजपुरुष राजनीति के साथ वैश्यों की उन्नति करें, वे ही लक्ष्मी को प्राप्त होवें ॥१२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजपुरुषैर्नित्यं वैश्यकुलं वर्द्धनीयमित्याह ॥

अन्वय:

(प्रतीचीम्) पश्चिमां दिशम् (आ) (रोह) (जगती) एतच्छन्दोऽभिहितमर्थम् (त्वा) त्वाम् (अवतु) (वैरूपम्) विविधानि रूपाणि यस्मिन् तत् (साम) सामवेदांशः (सप्तदशः) पञ्च कर्मेन्द्रियाणि पञ्च विषयाः पञ्च महाभूतानि कार्य्यं कारणं चेति सप्तदशानां पूरकः (स्तोमः) स्तुतिसमूहः (वर्षाः) (ऋतुः) (विट्) वणिग्जनः (द्रविणम्) द्रव्यम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.१.५) व्याख्यातः ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! यं त्वा जगती वैरूपं साम सप्तदश स्तोम ऋतुर्वर्षा द्रविणं विट् चावतु, स त्वं प्रतीचीं दिशमारोह धनं च लभस्व ॥१२॥
भावार्थभाषाः - ये राजपुरुषा राजनीत्या वैश्यानुन्नयेयुस्ते श्रियमाप्नुयुः ॥१२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजपुरुष राजनीतीनुसार वैश्य लोकांची उन्नती करण्यास मदत करतात त्यांनाच लक्ष्मी प्राप्त होते.