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मा भे॒र्मा॒ संवि॑क्था॒ऽअत॑मेरुर्य॒ज्ञोऽत॑मेरु॒र्यज॑मानस्य प्र॒जा भू॑यात् त्रि॒ताय॑ त्वा द्वि॒ताय॑ त्वैक॒ताय॑ त्वा ॥२३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। भेः॒। मा। सम्। वि॒क्थाः॒। अत॑मेरुः। य॒ज्ञः। अत॑मेरुः। यज॑मानस्य। प्र॒जेति॑ प्र॒ऽजा। भू॒या॒त्। त्रि॒ताय॑। त्वा॒। द्वि॒ताय॑। त्वा॒। ए॒क॒ताय॑। त्वा॒ ॥२३॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

निःशङ्क होकर उक्त यज्ञ सब को करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् पुरुषो ! तुम (अतमेरुः) श्रद्धालु होकर (यजमानस्य) यजमान के यज्ञ के अनुष्ठान से (मा भेः) भय मत करो और उससे (मा संविक्थाः) मत चलायमान हो। इस प्रकार (यज्ञः) यज्ञ करते हुए तुम को उत्तम से उत्तम (अतमेरुः) ग्लानिरहित श्रद्धावान् (प्रजा) सन्तान (भूयात्) प्राप्त हो और मैं (त्वा) भौतिक अग्नि को उक्त गुणयुक्त तथा (एकताय) सत्य सुख के लिये (द्विताय) वायु तथा वृष्टि जल की शुद्धि तथा (त्रिताय) अग्नि, कर्म और हवि के होने के लिये (संयौमि) निश्चल करता हूँ ॥२३॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा और आशीर्वाद देता है कि किसी मनुष्य को यज्ञ, सत्याचार और विद्या के ग्रहण से डरना वा चलायमान कभी न होना चाहिये, क्योंकि मनुष्यों को उक्त यज्ञ आदि अच्छे-अच्छे कार्यों से ही उत्तम-उत्तम सन्तान शारीरिक, वाचिक और मानस विविध प्रकार के निश्चल सुख प्राप्त हो सकते हैं ॥२३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

निःशङ्कतया सर्वैः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(मा) निषेधार्थे (भेः) बिभीहि। अत्र लोडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि [अष्टा꠶२.४.७३] इति शपो लुक् (मा) निषेधार्थे (सम्) एकीभावे (विक्थाः) चल। ओविजी भयचलनयोरित्यस्माल्लोडर्थे लङ्। लङि मध्यमैकवचने बहुलं छन्दसि [अष्टा꠶२.४.७३] इति विकरणाभावश्च (अतमेरुः) न ताम्यति येन यज्ञेन सः। तमुधातोर्बाहुलकादेरुः प्रत्ययः (यज्ञः) इज्यते यस्मिन् सः (अतमेरुः) न ताम्यति यः स यज्ञकर्त्ता मनु्ष्यः (यजमानस्य) यज्ञस्यानुष्ठातुः (प्रजा) सुसंताना यज्ञसंपादिका (भूयात्) भवेत् (त्रिताय) त्रयाणामग्निकर्महविषां भावाय (त्वा) तम् (द्विताय) द्वयोर्वायुवृष्टिजलशुद्ध्योर्भावाय (त्वा) तम् (एकताय) एकस्य सुखस्य भावाय (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।१।२।१५-१८) तथा (१।२।३।१-९) व्याख्यातः ॥२३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! त्वमतमेरुः सन् यजमानस्य यज्ञस्यानुष्ठानान्मा भेर्भयं मा कुरु। एतस्मान्मा संविक्था मा विचल। एवं यज्ञं कृतवतस्तेऽतमेरुः प्रजा भूयात्। अहं त्वा तमग्निं यज्ञाय त्रिताय [त्वा] द्विताय [त्वा] एकताय च सुखाय संयौमि ॥२३॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरः प्रतिमनुष्यमाज्ञापयत्याशीश्च ददाति, नैव केनापि मनुष्येण यज्ञसत्याचारविद्याग्रहणस्य सकाशाद् भेतव्यम्, विचलितव्यं वा। कस्माद् युष्माभिरेतैरेव सुप्रजाः शारीरिकवाचिकमानसानि निश्चलानि (च) सुखानि प्राप्तुं शक्यानि भवन्त्यस्मादिति ॥२३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर सर्व माणसांना अशी आज्ञा करतो व आशीर्वाद देतो की कोणत्याही माणसाने यज्ञ, सत्याचरण व विद्येचे ग्रहण यात आळस करू नये. विचलित होऊ नये. अशा प्रकारचे यज्ञ इत्यादी उत्तम कर्म केल्याने चांगली संताने आणि शारीरिक, वाचिक, मानसिक इत्यादी निश्चल सुख प्राप्त होऊ शकते.