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शर्मा॒स्यव॑धूत॒ꣳ रक्षोऽव॑धूता॒ऽअरा॑त॒योऽदि॑त्या॒स्त्वग॑सि॒ प्रति॒ त्वादि॑तिर्वेत्तु। अद्रि॑रसि वानस्प॒त्यो ग्रावा॑सि पृ॒थुबु॑ध्नः॒ प्रति॒ त्वादि॑त्या॒स्त्वग्वे॑त्तु ॥१४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शर्म॑। अ॒सि॒। अव॑धूत॒मित्यव॑ऽधूतम्। रक्षः॑। अव॑धूता॒ इत्यव॑धूताः। अरा॑तयः। अदि॑त्याः। त्वक्। अ॒सि॒। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑तिः। वे॒त्तु॒। अद्रिः॑। अ॒सि॒। वा॒न॒स्प॒त्यः। ग्रावा॑। अ॒सि॒। पृ॒थुबु॑ध्न॒ इति॑ पृ॒थुबु॑ध्नः। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑त्याः। त्वक्। वे॒त्तु॒ ॥१४॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त यज्ञ किस प्रकार का है, और किस प्रकार से करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम्हारा घर (शर्म) सुख देनेवाला (असि) हो। उस घर से (रक्षः) दुष्टस्वभाववाले प्राणी (अवधूतम्) अलग करो और (अरातयः) दान आदि धर्मरहित शत्रु (अवधूताः) दूर हों। उक्त गृह (अदित्याः) पृथिवी की (त्वक्) त्वचा के तुल्य (असि) हों, (अदितिः) ज्ञानस्वरूप ईश्वर ही से उस घर को (प्रतिवेत्तु) सब मनुष्य जानें और प्राप्त हों तथा जो (वानस्पत्यः) वनस्पति के निमित्त से उत्पन्न होने (पृथुबुध्नः) अतिविस्तारयुक्त अन्तरिक्ष में रहने तथा (ग्रावा) जल का ग्रहण करनेवाला (अद्रिः) मेघ (असि) है, उस और इस विद्या को (अदितिः) जगदीश्वर तुम्हारे लिये (वेत्तु) कृपा करके जनावे। विद्वान् पुरुष भी (अदित्याः) पृथिवी की (त्वक्) त्वचा के समान (त्वा) उक्त घर की रचना को (प्रतिवेत्तु) जानें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर मनुष्यों को आज्ञा देता है कि तुम लोग शुद्ध और विस्तारयुक्त भूमि के बीच में अर्थात् बहुत से अवकाश में सब ऋतुओं में सुख देने योग्य घर को बना के उस में सुखपूर्वक वास करो तथा उसमें रहनेवाले दुष्ट स्वभावयुक्त मनुष्यादि प्राणी और दोषों को निवृत्त करो, फिर उसमें सब पदार्थ स्थापन और वर्षा का हेतु जो यज्ञ है, उस का अनुष्ठान कर के नाना प्रकार के सुख उत्पन्न करना चाहिये, क्योंकि यज्ञ के करने से वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा संसार में अत्यन्त सुख सिद्ध होता है ॥१४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स यज्ञः कीदृशोऽस्ति कथं कर्तव्यश्चेत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(शर्म) सुखकारकं गृहम्। शर्म इति गृहनामसु पठितम् (निघं꠶३।४)। (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (अवधूतम्) दूरीकृतं विचालितम् (रक्षः) दुष्टस्वभावो जन्तुः (अवधूताः) दूरीभूताः (अरातयः) दानशीलतारहिताः शत्रवः (अदित्याः) पृथिव्याः। अदितिरिति पृथिवीनामसु पठितम् (निघं꠶१।१)। (त्वक्) त्वग्वत् (असि) भवति (प्रति) क्रियार्थे पश्चादर्थे। प्रतीत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह (निरु꠶१।३) (त्वा) तत् तं वा (अदितिः) नाशरहितो जगदीश्वरः। अदितिरिति पदनामसु पठितम् (निघं꠶५।५)। अनेन ज्ञानस्वरूपोऽर्थो गृह्यते। अन्तरिक्षं वा (वेत्तु) जानातु ज्ञापयतु वा (अद्रिः) मेघः। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम् (निघं꠶१।१०) (असि) अस्ति (वानस्पत्यः) वनस्पतेर्विकारो रसमयः (ग्रावा) जलगृहीतो मेघः। ग्रावेति मेघनामसु पठितम् (निघं꠶१।१०) (असि) अस्ति (पृथुबुध्नः) पृथु विस्तीर्णं बुघ्नमन्तरिक्षं निवासार्थं यस्य स पृथुबुध्नो मेघः। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति (निरु꠶१०।४४)। (प्रति) उक्तार्थे (त्वा) तम् (अदित्याः) अन्तरिक्षस्य (त्वक्) त्वग्वत् सेविनम् (वेत्तु) जानातु ज्ञापयतु वा ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।१।४।४-७) व्याख्यातः ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! युष्मद्गृहं शर्मासि भवतु तस्माद् गृहाद् रक्षोऽवधूतमरातयोऽवधूता भवन्तु। तच्च गृहमदित्याग्त्वगसि पृथिव्यास्त्वग्वदस्त्विति सर्वो जनः प्रतिवेत्तु। यो वानस्पत्योऽद्रिः [असि] पृथुबुध्नो ग्रावा मेघोऽसि वर्त्तते, एतद्विद्यामदितिर्जगदीश्वरस्तुभ्यं वेत्तु कृपया वेदयतु। विद्वानप्यदित्यास्त्वग्वत् त्वा तं व्यवहारं प्रतिवेत्तु ॥१४॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरेणाज्ञाप्यते मनुष्यैः शुद्धायाः सर्वतोऽवकाशयुक्तायाः पृथिव्या मध्ये सर्वेष्वृतुषु सुखदायकं गृहं रचयित्वा तत्र सुखेन स्थातव्यम्। तस्मात् सर्वे दुष्टा मनुष्या दोषाश्च निवारणीयास्तत्र सर्वाणि साधनान्यपि स्थापनीयानि। तत्रैव वृष्टिहेतुर्यज्ञोऽनुष्ठाय सुखानि संपादनीयानि। एवं कृते वायुवृष्टिजलशुद्धिद्वारा जगति महत्सुखं सिध्यतीति ॥१४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर माणसांना अशी आज्ञा करतो की, तुम्ही या विस्तृत भूमीवर सर्व ऋतूंमध्ये सुखकारक अशी घरे बांधून त्यात सुखाने राहा व तेथे सर्व पदार्थांचा संग्रह करा. दुष्ट माणसांना दूर करून दोष नाहीसे करा. पर्जन्याचा हेतू असणाऱ्या यज्ञाचे अनुष्ठान करून नाना प्रकारचे सुख प्राप्त करा. यज्ञानेच वायू व वृष्टिजलाची शुद्धी होऊन या जगात परम सुख प्राप्त होते.