उन यज्ञशाला आदिक घर कैसे बनाने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - मैं जिस यज्ञ को (भूताय) प्राणियों के सुख तथा (अरातये) दारिद्र्य आदि दोषों के नाश के लिये (अदित्या) वेदवाणी वा विज्ञानप्रकाश के (उपस्थे) गुणों में (सादयामि) स्थापना करता हूँ और (त्वा) उसको कभी (न) नहीं छोड़ता हूँ। हे विद्वान् लोगो ! तुम को उचित है कि (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में (दुर्य्याः) अपने घर (दृंहन्ताम्) बढ़ाने चाहिये। मैं (पृथिव्याः) (नाभौ) पृथिवी के बीच में जिन गृहों में (स्वः) जल आदि सुख के पदार्थों को (अभिविख्येषम्) सब प्रकार से देखूँ और (उर्वन्तरिक्षम्) उक्त पृथिवी में बहुत-सा अवकाश देकर सुख से निवास करने योग्य स्थान रचकर (त्वा) आपको (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ। हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (हव्यम्) हमारे देने-लेने योग्य पदार्थों की (रक्ष) सर्वदा रक्षा कीजिये ॥ यह प्रथम पक्ष हुआ ॥११॥ अब दूसरा पक्ष−हे (अग्ने) परमेश्वर ! मैं (भूताय) संसारी जीवों के सुख तथा (अरातये) दरिद्रता का विनाश और दान आदि धर्म करने के लिये (पृथिव्याः) पृथिवी के (नाभौ) बीच में (सबके स्वामी तथा उपासनीय जानकर) (स्वः) सुखस्वरूप (त्वा) आपको (अभिविख्येषम्) प्रकाश करता हूँ तथा आपकी कृपा से मेरे घर आदि पदार्थ और उनमें रहनेवाले मनुष्य आदि प्राणी (दृंहन्ताम्) वृद्धि को प्राप्त हों और मैं (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में (उरु) बहुत से (अन्तरिक्षम्) अवकाशयुक्त स्थान को निवास के लिये (अदित्या उपस्थे) सर्वत्र व्यापक आपके समीप सदा (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ। कदाचित् (त्वा) आपका (न सादयामि) त्याग नहीं करता हूँ। हे जगदीश्वर ! आप मेरे (हव्यम्) अर्थात् उत्तम पदार्थों की सर्वदा (रक्ष) रक्षा कीजिये ॥यह दूसरा पक्ष हुआ ॥११॥ तथा तीसरा और भी कहते हैं−मैं शिल्पविद्या का जाननेवाला यज्ञ को करता हुआ (भूताय) सांसारिक प्राणियों के सुख और (अरातये) दरिद्रता आदि दोषों के विनाश वा सुख से दान आदि धर्म करने की इच्छा से (पृथिव्याः) (नाभौ) इस पृथिवी पर शिल्पविद्या की सिद्धि करनेवाला जो (अग्ने) अग्नि है, उसको हवन करने वा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये (सादयामि) स्थापन करता हूँ, क्योंकि उक्त शिल्पविद्या इसी से सिद्ध होती है, (अदित्याः) (उपस्थे) तथा जो अन्तरिक्ष में स्थित मेघमण्डल में (हव्यम्) होम द्वारा पहुँचे हुए उत्तम-उत्तम पदार्थों की (रक्ष) रक्षा करनेवाला है, इसीलिये इस अग्नि को (पृथिव्याम्) पृथिवी में स्थापन करके (उर्वन्तरिक्षम्) बड़े अवकाशयुक्त स्थान और विविध प्रकार के सुखों को (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ अथवा इसी प्रयोजन के लिये (त्वा) इस अग्नि को पृथिवी में स्थापन करता हूँ। इस प्रकार श्रेष्ठ कर्मों को करता हुआ (स्वः) अनेक सुखों को (अभिविख्येषम्) देखूँ तथा मेरे (दुर्य्याः) घर और उनमें रहनेवाले मनुष्य (दृꣳहन्ताम्) शुभ गुण और सुख से वृद्धि को प्राप्त हों, इसलिये इस भौतिक अग्नि का भी त्याग मैं कभी (न) नहीं करता हूँ ॥ यह तीसरा अर्थ हुआ ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और ईश्वर ने आज्ञा दी है कि हे मनुष्य लोगो ! मैं तुम्हारी रक्षा इसलिये करता हूँ कि तुम लोग पृथिवी पर सब प्राणियों को सुख पहुँचाओ तथा तुम को योग्य है कि वेदविद्या, धर्म के अनुष्ठान और अपने पुरुषार्थ द्वारा विविध प्रकार के सुख सदा बढ़ाने चाहिये। तुम सब ऋतुओं में सुख देने के योग्य, बहुत अवकाशयुक्त, सुन्दर घर बनाकर, सर्वदा सुख सेवन करो और मेरी सृष्टि में जितने पदार्थ हैं, उनसे अच्छे-अच्छे गुणों को खोजकर अथवा अनेक विद्याओं को प्रकट करते हुए फिर उक्त गुणों का संसार में अच्छे प्रकार प्रचार करते रहो कि जिससे सब प्राणियों को उत्तम सुख बढ़ता रहे तथा तुम को चाहिये कि मुझको सब जगह व्याप्त, सब का साक्षी, सब का मित्र, सब सुखों का बढ़ानेहारा, उपासना के योग्य और सर्वशक्तिमान् जानकर सब का उपकार, विविध विद्या की वृद्धि, धर्म में प्रवृत्ति, अधर्म से निवृत्ति, क्रियाकुशलता की सिद्धि और यज्ञक्रिया के अनुष्ठान आदि करने में सदा प्रवृत्त रहो ॥११॥ इस मन्त्र में महीधर ने भ्रान्ति से (अभिविख्येषम्) यह पद (ख्या प्रकथने) इस धातु का दर्शन अर्थ में माना है। यह धातु के अर्थ से ही विरुद्ध होने करके अशुद्ध है ॥११॥