सो꣡म꣢ उ ष्वा꣣णः꣢ सो꣣तृ꣢भि꣣र꣢धि꣣ ष्णु꣢भि꣣र꣡वी꣢नाम् । अ꣡श्व꣢येव ह꣣रि꣡ता꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या म꣣न्द्र꣡या꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या ॥९९७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सोम उ ष्वाणः सोतृभिरधि ष्णुभिरवीनाम् । अश्वयेव हरिता याति धारया मन्द्रया याति धारया ॥९९७॥
सो꣡म꣢꣯ । उ꣣ । स्वानः꣢ । सो꣣तृ꣡भिः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । स्नु꣡भिः꣢꣯ । अ꣡वी꣢꣯नाम् । अ꣡श्व꣢꣯या । इ꣣व । हरि꣡ता꣢ । या꣣ति । धा꣡र꣢꣯या । म꣣न्द्र꣡या꣢ । या꣣ति । धा꣡र꣢꣯या ॥९९७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ५१५ क्रमाङ्क पर सोम ओषधि के रस के विषय में तथा ब्रह्मानन्द के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ भेड़ के बालों से निर्मित वस्त्रखण्डों से गोदुग्ध को छानने का वर्णन है।
(सोतृभिः) गोदुग्ध को छाननेवालों द्वारा (अवीनां स्नुभिः) भेड़ के बालों से निर्मित, पर्वतशिखर के समान फैले हुए वस्त्रों से (अधिष्वाणः) छाना जाता हुआ (सोमः) गोदुग्ध (अश्वया इव) शीघ्रगामिनी नदी के समान (हरिता) तेज (धारया) धारा से (याति) कड़ाहों में छनता है, (मन्द्रया) आनन्ददायिनी (धारया) धारा के साथ (याति) कड़ाहों में छनता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है। ‘याति धारया’ की पुनरुक्ति में लाटानुप्रास है ॥१॥
जिस देश में गोदुग्ध की धाराएँ बहती हैं, वहाँ के लोग हृष्ट, पुष्ट, अधिक बलवान् होते हुए, दीर्घायुष्य पाते हुए, चिरकाल तक यज्ञादि कर्म करते हुए और आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते हुए आनन्दित रहते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५१५ क्रमाङ्के सोमौषधिरसविषये ब्रह्मानन्दविषये च व्याख्याता। अत्र अविबालनिर्मितैर्वस्त्रखण्डैर्गोदुग्धक्षरणं वर्ण्यते।
(सोतृभिः) गोदुग्धक्षारकैः (अवीनां स्नुभिः) अविबालनिर्मितैः सानुवत् प्रततैः वस्त्रैः। [मांस्पृत्स्नूनामुपसंख्यानम्। अ० ६।१।६३ वा० इत्यनेन सानुशब्दस्य स्नुरादेशः।] (अधिष्वाणः) अधिषूयमाणः अधिक्षार्यमाणः (सोमः) गवां पयः२ (अश्वया इव) आशुगामिन्या नद्या इव (हरिता) शीघ्रया (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) कटाहेषु क्षरति, (मन्द्रया) आनन्दप्रदया (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) कटाहेषु क्षरति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘याति धारया’ इत्यस्य पुनरुक्तौ च लाटानुप्रासः ॥१॥
यस्मिन् देशे गोदुग्धस्य धाराः प्रवहन्ति तत्रत्या जना हृष्टाः पुष्टा बलीयांसः सन्तो दीर्घायुष्यं लभमानाः सुचिरं यज्ञादिकर्माणि कुर्वन्तोऽध्यात्मजीवनं च यापयन्तो मोदन्ते ॥१॥