या꣢ वा꣣ꣳ स꣡न्ति꣢ पुरु꣣स्पृ꣡हो꣢ नि꣣यु꣡तो꣢ दा꣣शु꣡षे꣣ नरा । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ ता꣢भि꣣रा꣡ ग꣢तम् ॥९९२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)या वाꣳ सन्ति पुरुस्पृहो नियुतो दाशुषे नरा । इन्द्राग्नी ताभिरा गतम् ॥९९२॥
याः । वा꣣म् । स꣡न्ति꣢꣯ । पु꣣रुस्पृ꣡हः꣢ । पु꣣रु । स्पृ꣡हः꣢꣯ । नि꣣यु꣡तः꣢ । नि꣣ । यु꣡तः꣢꣯ । दा꣣शु꣡षे꣢ । न꣣रा । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । ता꣡भिः꣢꣯ । आ । ग꣣तम् ॥९९२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय को कहते हैं।
हे (नरा) नेता (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन वा राजा एवं सेनापति ! (दाशुषे) त्यागशील, परोपकारी जन के लिए (याः) जो (वाम्) तुम्हारी (नियुतः) लाख संख्यावाली (पुरुस्पृहः) बहुत महत्वाकांक्षावाली उदात्त कामनाएँ हैं, (ताभिः) उनके साथ तुम (आ गतम्) आओ ॥२॥
शरीर में मनुष्य का अन्तरात्मा और मन तथा राष्ट्र में राजा और सेनाध्यक्ष दूसरों का हित करनेवाले मनुष्य का ही उपकार करते हैं, स्वार्थ की कीचड़ से लिप्त मनुष्य का नहीं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
हे (नरा) नरौ नेतारौ (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी नृपतिसेनापती वा ! (दाशुषे) दत्तवते त्यागशीलाय परोपकारिणे जनाय (याः वाम्) युवयोः (नियुतः) लक्षसंख्यकाः (पुरुस्पृहः) बहुमहत्त्वाकाङ्क्षिण्यः उदात्ताः कामनाः सन्ति (ताभिः) उदात्ताभिः कामनाभिः युवाम् (आ गतम्२) आगच्छतम् ॥२॥३
देहे मनुष्यस्यान्तरात्मा मनश्च राष्ट्रे राजा सेनाध्यक्षश्च परहितकारिणमेव जनमुपकुर्वन्ति न स्वार्थपङ्कलिप्तम् ॥२॥