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इ꣡न्द्रा꣢ग्नी यु꣣वा꣢मि꣣मे꣢३ऽभि꣡ स्तोमा꣢꣯ अनूषत । पि꣡ब꣢तꣳ शम्भुवा सु꣣त꣢म् ॥९९१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्राग्नी युवामिमे३ऽभि स्तोमा अनूषत । पिबतꣳ शम्भुवा सुतम् ॥९९१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अग्नी꣣इ꣡ति꣢ । यु꣣वा꣢म् । इ꣣मे꣢ । अ꣣भि꣢ । स्तो꣡माः꣢꣯ । अ꣣नूषत । पि꣡ब꣢꣯तम् । श꣣म्भुवा । शम् । भुवा । सुत꣢म् ॥९९१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 991 | (कौथोम) 3 » 2 » 10 » 1 | (रानायाणीय) 6 » 3 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में इन्द्र और अग्नि के नाम से आत्मा और मन तथा राजा एवं सेनापति का आह्वान किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन तथा राजा और सेनापति ! (युवाम्) तुम्हारी (इमे स्तोमाः) ये स्तोत्र (अभि अनूषत) प्रशंसा कर रहे हैं। हे (शम्भुवा) कल्याणकारियो ! तुम (सुतम्) अभिषुत वीररस को (पिबतम्) पीओ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

वीरता और उद्बोधन को प्राप्त करके ही मनुष्य के आत्मा और मन तथा राजा और सेनापति वैयक्तिक एवं सामाजिक उन्नति करने योग्य होते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादाविन्द्राग्निनाम्नाऽऽत्ममनसी नृपतिसेनापती चाह्वयति। 

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी नृपतिसेनापती वा ! (युवाम्) वाम् (इमे स्तोमाः) इमानि स्तोत्राणि (अभि अनूषत) प्रशंसन्ति। हे (शम्भुवा) शम्भुवौ कल्याणकर्तारौ। [यौ शं सुखं भावयतस्तौ शम्भुवौ।] युवाम् (सुतम्) अभिषुतं वीररसम्(पिबतम्) आस्वादयतम् ॥१॥३

भावार्थभाषाः -

वीरतामुद्बोधनं च प्राप्यैव मनुष्यस्यात्मा मनश्च राष्ट्रस्य राजा सेनापतिश्च वैयक्तिकीं सामाजिकीं चोन्नतिं कर्तुमर्हन्ति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ६।६०।७। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं सभासेनेशपक्षे व्याख्यातवान्, सुतशब्देन च अभिनिष्पादितं दुग्धादिरसं गृहीतवान्।