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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: जमदग्निर्भार्गवः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

त्व꣡ꣳ सो꣢म꣣ प꣡रि꣢ स्रव꣣ स्वा꣡दि꣢ष्ठो꣣ अ꣡ङ्गि꣢रोभ्यः । व꣣रिवोवि꣢द्घृ꣣तं꣡ पयः꣢꣯ ॥९८१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वꣳ सोम परि स्रव स्वादिष्ठो अङ्गिरोभ्यः । वरिवोविद्घृतं पयः ॥९८१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम् । सो꣣म । प꣡रि꣢ । स्र꣣व । स्वा꣡दि꣢꣯ष्ठ । अ꣡ङ्गि꣢꣯रोभ्यः । व꣣रिवोवि꣢त् । व꣣रिवः । वि꣢त् । घृ꣣त꣢म् । प꣡यः꣢꣯ ॥९८१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 981 | (कौथोम) 3 » 2 » 6 » 3 | (रानायाणीय) 6 » 2 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार परमेश्वर ! (स्वादिष्ठः) सबसे अधिक मधुर और (वरिवोवित्) ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप (अङ्गिरोभ्यः) प्राणायाम के अभ्यासी योगसाधकों के लिए (घृतम्) तेज और (पयः) आनन्दरस को (परि स्रव) क्षरित कीजिए ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जो लोग परमात्मा के ध्यान में मग्न हो जाते हैं, उन्हें वह सर्वाधिक रसीला, सर्वाधिक मधुर और सर्वाधिक तेजस्वी अनुभूत होता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा के स्वरूपवर्णनपूर्वक उसकी स्तुति करने, उसका आह्वान करने और उससे आनन्दरस के प्रवाह की प्रार्थना करने के कारण इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ षष्ठ अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार परमेश ! (स्वादिष्ठः) मधुरतमः, (वारिवोवित्) ऐश्वर्यस्य लम्भकश्च। [वरिवः इति धननाम। निघं० २।१०।] त्वम् (अङ्गिरोभ्यः) प्राणायामाभ्यासिभ्यो योगसाधकेभ्यः। [प्राणो वा अङ्गिराः श० ६।१।२।२८।] (घृतम्) तेजः (पयः) आनन्दरसं च (परिस्रव) परिक्षर ॥३॥

भावार्थभाषाः -

ये परमात्मनो ध्याने मग्ना जायन्ते तैः स रसवत्तमो मधुरतमस्तेजस्वितमश्चानुभूयते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मस्वरूपवर्णनपुरस्सरं तत्स्तुतिकरणात् तदाह्वानात् तत आनन्दरसप्रवाहप्रार्थनाच्चैतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति विज्ञेयम् ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६२।९, ‘त्वं सोम’ इत्यत्र ‘त्वमि॑न्दो॒’ इति पाठः।