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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: जमदग्निर्भार्गवः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

सो꣢ अ꣣र्षे꣡न्द्रा꣢य पी꣣त꣡ये꣢ ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । सी꣡द꣢न्नृ꣣त꣢स्य꣣ यो꣢नि꣣मा꣢ ॥९८०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

सो अर्षेन्द्राय पीतये तिरो वाराण्यव्यया । सीदन्नृतस्य योनिमा ॥९८०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । अ꣣र्ष । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पी꣣त꣡ये꣢ । ति꣣रः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । सी꣡द꣢꣯न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । आ ॥९८०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 980 | (कौथोम) 3 » 2 » 6 » 2 | (रानायाणीय) 6 » 2 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में आनन्दरस के प्रवाह की आकाङ्क्षा की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवमान सोम अर्थात् प्रवाहशील ब्रह्मानन्दरस ! (ऋतस्य योनिम्) सत्य के आश्रय परमात्मा के (आसीदन्) पास स्थित हुआ (सः) वह प्रशंसनीय तू (अव्यया) कठिनाई से अतिक्रमण किये जाने योग्य तथा (वाराणि) योगमार्ग से रोकनेवाले व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदि विघ्नों को (तिरः) तिरस्कृत करके (इन्द्राय पीतये) जीवात्मा के पान के लिए (अर्ष) प्रवाहित हो ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा के पास से बहा हुआ परमानन्द का प्रवाह स्तोता की आत्मभूमि को सींचता हुआ उसे सद्गुणरूप शस्यों से श्यामल कर देता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथानन्दरसप्रवाहमाकाङ्क्षते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवमान सोम प्रवहणशील ब्रह्मानन्दरस ! (ऋतस्य योनिम्) सत्यस्य गृहं परमात्मानम् (आसीदन्) उपतिष्ठमानः (सः) प्रशंसनीयः त्वम् (अव्यया) अव्ययानि दुरतिक्रमणीयानि (वाराणि) योगमार्गाद् निवारकाणि व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादीनि विघ्नजालानि (तिरः) तिरस्कृत्य (इन्द्राय पीतये) जीवात्मनः पानाय (अर्ष) प्रस्रव ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मनः प्रस्रुतः परमानन्दप्रवाहः स्तोतुरात्मभूमिं सिञ्चंस्तां सद्गुणसस्यैः श्यामलां करोति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६२।८, ‘रोमा॑ण्य॒व्यया॑ सीद॒न् योना॒ वने॒ष्वा’ इति पाठः।