प्र꣡ होत्रे꣢꣯ पू꣣र्व्यं꣢꣫ वचो꣣ऽग्न꣡ये꣢ भरता बृ꣣ह꣢त् । वि꣣पां꣡ ज्योती꣢꣯ꣳषि꣣ बि꣡भ्र꣢ते꣣ न꣢ वे꣣ध꣡से꣢ ॥९८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र होत्रे पूर्व्यं वचोऽग्नये भरता बृहत् । विपां ज्योतीꣳषि बिभ्रते न वेधसे ॥९८॥
प्र꣢ । हो꣡त्रे꣢꣯ । पू꣣र्व्य꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । अ꣣ग्न꣡ये꣢ । भ꣣रत । बृह꣢त् । वि꣣पा꣢म् । ज्यो꣡तीँ꣢꣯षि꣣ । बि꣡भ्र꣢꣯ते । न । वे꣣ध꣡से꣢ ॥९८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में मनुष्यों को परमेश्वर की आराधना करने की प्रेरणा दी गयी है।
हे मनुष्यो ! तुम (विपाम्) मेधावी छात्रों के (ज्योतींषि) विद्या-तेजों को (बिभ्रते) परिपुष्ट करनेवाले, (वेधसे न) द्विज बनाने के लिए द्वितीय जन्म देनेवाले आचार्य के लिए जैसे स्तुति-वचन उच्चारण किये जाते हैं, वैसे ही (विपाम्) व्याप्त सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र आदि के (ज्योतींषि) तेजों को (बिभ्रते) परिपुष्ट करनेवाले (वेधसे) जगद्-विधाता, (होत्रे) सुख-समृद्धि-प्रदाता (अग्नये) तेजस्वी परमेश्वर के लिए (बृहत्) महान् (पूर्व्यम्) श्रेष्ठ (वचः) वेद के स्तोत्र को (प्र भरत) प्रकृष्ट रूप से उच्चारण करो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥
जैसे कोई विद्वान् शिक्षक अपने उपदेश और शिक्षा से बुद्धिमान् विद्यार्थियों को विद्या-तेज प्रदान करता है, वैसे ही जो परमेश्वर सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र, बिजली आदिकों को ज्योति देता है, उस परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर में सबको श्रद्धा करनी चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जनाः परमेश्वराराधनाय प्रेर्यन्ते।
हे जनाः ! यूयम् (विपाम्) मेधाविनां छात्राणाम्। विपः इति मेधाविनामसु पठितम्। निघं० ३।१५। (ज्योतींषि) विद्यातेजांसि (बिभ्रते) पुष्णते (वेधसे न२) द्विजत्वसम्पादनार्थं द्वितीयजन्मविधात्रे आचार्याय इव, यथा आचार्याय स्तुतिवचांसि उच्चार्यन्ते तथेत्यर्थः। स हि विद्यातस्तं जनयति। तच्छ्रेष्ठं जन्म। शरीरमेव तु मातापितरौ जनयतः। आप० ध० सू० १।१।१।१६-१८ इत्यापस्तम्बस्मरणाद् आचार्यादेव द्वितीयं जन्म प्राप्य स्नातको द्विजो जायते। (विपाम्३) व्याप्तानां सूर्यचन्द्रनक्षत्रादीनाम् (ज्योतींषि) तेजांसि (बिभ्रते) पुष्णते (वेधसे) जगद्विधात्रे, (होत्रे) सुखसमृद्धिप्रदात्रे (अग्नये) तेजस्विने परमेश्वराय (बृहत्) महत् (पूर्व्यम्) श्रेष्ठम् अत्र पादार्घाभ्यां च।’ अ० ५।४।२५ इति सूत्रे परिगणितेषु स्वार्थयत्प्रत्ययीयशब्देषु पूर्वशब्दस्यापि पाठात् स्वार्थे यत् प्रत्ययः। (वचः) वेदस्तोत्रम् (प्र भरत) प्रकृष्टतया उच्चारयत। भृञ् भरणे, भौवादिकः। संहितायाम् ऋचि तुनुघमक्षु०। अ० ६।३।१३३ इति दीर्घः ॥२॥४ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥२॥
यथा कश्चिद् विद्वान् शिक्षकः स्वोपदेशेन शिक्षया च मेधाविभ्यश्छात्रेभ्यो विद्यातेजांसि प्रयच्छति तथैव यः परमेश्वरः सूर्यचन्द्रनक्षत्रविद्युदादिभ्यो ज्योतींषि परिददाति, तस्मिन् परमैश्वर्यशालिनि जगदीश्वरे सर्वैः श्रद्धातव्यम् ॥२॥