य꣡वं꣢यवं नो꣣ अ꣡न्ध꣢सा पु꣣ष्टं꣡पु꣢ष्टं꣣ प꣡रि꣢ स्रव । वि꣡श्वा꣢ च सोम꣣ सौ꣡भ꣢गा ॥९७५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यवंयवं नो अन्धसा पुष्टंपुष्टं परि स्रव । विश्वा च सोम सौभगा ॥९७५॥
य꣡वंय꣢꣯वम् । य꣡व꣢꣯म् । य꣣वम् । नः । अ꣡न्ध꣢꣯सा । पु꣣ष्टं꣡पु꣢ष्टम् । पु꣣ष्ट꣢म् । पु꣣ष्टम् । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । वि꣡श्वा꣢꣯ । च꣣ । सोम । सौ꣡भ꣢꣯गा । सौ । भ꣣गा ॥९७५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।
हे (सोम) जगदाधार, सर्वैश्वर्यवान्, ब्रह्माण्ड के अधिपति परमात्मन् ! आप (अन्धसा) रस से (पुष्टंपुष्टम्) अत्यधिक परिपुष्ट (यवंयवम्) जौ आदि सब भोग्य पदार्थों को (विश्वा सौभगा च) और सब सौभाग्यों को (नः) हमारे लिए (परिस्रव) चारों और प्रवाहित करो ॥१॥
जिस जगत्पति ने सब बहुमूल्य पदार्थ रचे हैं, उसी की कृपा से मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा उन्हें पा सकता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ जगदीश्वरः प्रार्थ्यते।
हे (सोम) जगदाधार सर्वैश्वर्य ब्रह्माण्डाधिपते परमात्मन् ! त्वम् (अन्धसा) रसेन (पुष्टंपुष्टम्) अतिशयेन परिपुष्टम् (यवंयवम्) यवादिकं समग्रं भोग्यं पदार्थजातम्। [यव इत्युपलक्षणं समस्तस्य भोग्यपदार्थसमूहस्य।] (विश्वा सौभगा च) सर्वाणि सौभाग्यानि च (नः) अस्मभ्यम् (परिस्रव) परिप्रवाहय ॥१॥
येन जगत्पतिना सर्वे बहुमूल्याः पदार्था रचितास्तत्कृपयैव मनुष्यः स्वपुरुषार्थेन तानधिगन्तुं पारयति ॥१॥