क्री꣣डु꣡र्म꣢खो꣡ न म꣢꣯ꣳह꣣युः꣢ प꣣वि꣡त्र꣢ꣳ सोम गच्छसि । द꣡ध꣢त्स्तो꣣त्रे꣢ सु꣣वी꣡र्य꣢म् ॥९७४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)क्रीडुर्मखो न मꣳहयुः पवित्रꣳ सोम गच्छसि । दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम् ॥९७४॥
क्रीडुः꣢ । म꣣खः꣢ । न । म꣣ꣳहयुः꣢ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । सो꣣म । गच्छसि । द꣡ध꣢꣯त् । स्तो꣣त्रे꣢ । सु꣣वी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् ॥९७४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह कहते हैं कि क्या करता हुआ परमात्मा कहाँ जाता है।
हे (सोम) जगत् के सर्जन करने हारे परमात्मन् ! (क्रीडुः) खेल-खेल में विश्व को चलानेवाले तथा (मखः न) यज्ञ के समान (मंहयुः) दूसरों को लाभ पहुँचाने की इच्छावाले आप (स्तोत्रे) स्तुतिपरायण मनुष्य के लिए (सुवीर्यम्) सुवीर्य से युक्त आत्म-बल (दधत्) प्रदान करते हुए, उसके (पवित्रम्) निर्मल अन्तःकरण में (गच्छसि) व्याप्त होते हो ॥७॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥७॥
जैसे यज्ञ सबके उपकार के लिए होता है, वैसे ही परमेश्वर भी दूसरों के उपकार में लगा हुआ स्तोता के अन्तरात्मा में बल, उत्साह, पुरुषार्थ और कर्मयोग की प्रेरणा देता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ किं कुर्वन् परमात्मा कुत्र गच्छतीत्याह।
हे (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (क्रीडुः) जगत्सञ्चालनक्रीडाकरः, किञ्च (मखः न) यज्ञः इव (मंहयुः) दानेच्छुकः त्वम्। [मंहते दानकर्मा निघं० ३।२०। मंहं दानं परेषां कामयते इति मंहयुः। परेच्छायां क्यचि उः प्रत्ययः।] (स्तोत्रे) स्तुतिपरायणाय जनाय (सुवीर्यम्) सुवीर्योपेतम् आत्मबलम् (दधत्) प्रयच्छन्, तस्य (पवित्रम्) निर्मलम् अन्तःकरणम् (गच्छसि) व्याप्नोषि ॥७॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥७॥
यथा यज्ञः सर्वेषामुपकाराय भवति तथा परमेश्वरोऽपि परेषामुपकारे संलग्नः स्तोतुरन्तरात्मनि बलमुत्साहं पुरुषार्थं कर्मयोगं च प्रेरयति ॥७॥