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त्व꣡ꣳ राजे꣢꣯व सुव्र꣣तो꣡ गिरः꣢꣯ सो꣣मा꣡वि꣢वेशिथ । पु꣣नानो꣡ व꣢ह्ने अद्भुत ॥९७२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वꣳ राजेव सुव्रतो गिरः सोमाविवेशिथ । पुनानो वह्ने अद्भुत ॥९७२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्व꣢म् । रा꣡जा꣢꣯ । इ꣣व । सुव्रतः꣢ । सु꣣ । व्रतः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । सो꣣म । आ꣢ । वि꣣वेशिथ । पुनानः꣢ । व꣣ह्ने । अद्भुत । अत् । भुत ॥९७२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 972 | (कौथोम) 3 » 2 » 4 » 5 | (रानायाणीय) 6 » 2 » 1 » 5


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमात्मा कैसा है, यह वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वह्ने) जगत् के भार के ढोनेवाले, (अद्भुत) आश्चर्यकारी गुण-कर्म-स्वभाववाले, (सोम) सबको उत्पन्न करनेवाले, सद्भावों को प्रेरित करनेवाले, ऐश्वर्यशालिन् जगदीश्वर ! (पुनानः) हदयों को पवित्र करते हुए (त्वम्) आप (राजा इव) सम्राट् के समान (सुव्रतः) सुकर्म करनेवाले हो। आप (गिरः) वेदवाणियों में (आविवेशिथ) प्रविष्ट हो, अर्थात् वेदवाणियाँ आपका ही वर्णन कर रही हैं, [क्योंकि ऋग्वेद कहता है कि ‘जिसने ऋचा पढ़कर परमेश्वर को नहीं जाना, उसे ऋचा से क्या लाभ’] (ऋ० १।१६४।३९) ॥५॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥५॥

भावार्थभाषाः -

जैसे कोई राजा राष्ट्र को उन्नत करनेवाले ही कार्य करता है, वैसे ही विश्वब्रह्माण्ड के अधीश्वर परमात्मा के जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि सब कर्म शुभ, निःस्वार्थ तथा परोपकार करनेवाले ही होते हैं ॥५॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मा कीदृश इति वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वह्ने) जगद्भारस्य वोढः (अद्भुत) आश्चर्यगुणकर्मस्वभाव (सोम) सर्वोत्पादक, सद्भावप्रेरक, ऐश्वर्यशालिन् जगदीश ! (पुनानः) हृदयानि पवित्रीकुर्वन् (त्वम् राजा इव) सम्राडिव (सुव्रतः) सुकर्मा असि। [व्रतमिति कर्मनाम। निघं० २।१।] किञ्च त्वं (गिरः) वेदवाचः (आविवेशिथ) प्रविष्टोऽसि, वेदवाचस्त्वामेवोपास्यत्वेन वर्णयन्तीत्यर्थः, [“यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒” ऋ० १।१६४।३९ इति श्रुतेः] ॥५॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥५॥

भावार्थभाषाः -

यथा कश्चिद् राजा राष्ट्रोन्नतिकराण्येव कार्याणि करोति तथैव विश्वब्रह्माण्डाधीश्वरस्य परमात्मनः सर्वाणि जगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयादीनि कर्माणि शुभानि निःस्वार्थानि परोपकारकराणि च भवन्ति ॥५॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।२०।५।