स꣡ हि ष्मा꣢꣯ जरि꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣢꣫ वाजं꣣ गो꣡म꣢न्त꣣मि꣡न्व꣢ति । प꣡व꣢मानः सह꣣स्रि꣡ण꣢म् ॥९६९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स हि ष्मा जरितृभ्य आ वाजं गोमन्तमिन्वति । पवमानः सहस्रिणम् ॥९६९॥
सः । हि । स्म꣣ । जरितृ꣡भ्यः꣢ । आ । वा꣡ज꣢꣯म् । गो꣡म꣢꣯न्तम् । इ꣡न्व꣢꣯ति । प꣡व꣢꣯मानः । स꣣हस्रि꣡ण꣢म् ॥९६९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा के उपकारों का वर्णन है।
(पवमानः) चित्त और आत्मा की शुद्धि करनेवाला (स हि) वह सोम अर्थात् जगत् को उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर(जरितृभ्यः) स्तोताओं के लिए (सहस्रिणम्) हजार संख्यावाले, (गोमन्तम्) प्रशस्त गाय, प्रशस्त वाणी आदि से युक्त (वाजम्) धन को, अथवा (गोमन्तम्) अन्तःप्रकाशयुक्त (वाजम्) आत्मबल को (आ इन्वति स्म) प्राप्त कराता है ॥२॥
प्रेय मार्ग का और श्रेय मार्ग का अवलम्बन करनेवाले लोगों से ध्यान किया हुआ परमेश्वर उन्हें मनोवाञ्छित सब श्रेय और प्रेय प्रदान कर देता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मन उपकारं वर्णयति।
(पवमानः) चित्तस्य आत्मनश्च शुद्धिमापादयन् (स हि) स खलु सोमः जगदुत्पादकः परमेश्वरः (जरितृभ्यः) स्तोतृभ्यः (सहस्रिणम्)सहस्रसंख्यकम् (गोमन्तम्) प्रशस्तधेनुवागादियुक्तम् (वाजम्) धनम्, यद्वा (गोमन्तम्) अन्तःप्रकाशयुक्तम् (वाजम्) आत्मबलम् (आ इन्वति स्म) आ प्रापयति।[इन्वति गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥२॥
प्रेयोमार्गिभिः श्रेयोमार्गिभिश्च ध्यातः परमेश्वरस्तेभ्यो मनोवाञ्छितं सर्वं प्रेयः श्रेयश्च प्रयच्छति ॥२॥