प꣡व꣢स्व वृत्र꣣ह꣡न्त꣢म उ꣣क्थे꣡भि꣢रनु꣣मा꣡द्यः꣢ । शु꣡चिः꣢ पाव꣣को꣡ अद्भु꣢꣯तः ॥९६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व वृत्रहन्तम उक्थेभिरनुमाद्यः । शुचिः पावको अद्भुतः ॥९६६॥
प꣡व꣢꣯स्व । वृ꣣त्र꣡हन्त꣢मः । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯मः । उ꣣क्थे꣡भिः꣢ । अ꣣नुमा꣡द्यः꣢ । अ꣣नु । मा꣡द्यः꣢꣯ । शु꣡चिः꣢꣯ । पा꣣व꣢कः । अ꣡द्भु꣢꣯तः । अत् । भुतः ॥९६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।
हे सोम ! हे रसागार, परमाह्लादक, जगदाधार परमेश्वर ! (वृत्रहन्तमः) पापों को अतिशय नष्ट करनेवाले, (उक्थेभिः) स्तोत्रों से (अनुमाद्यः) प्रसन्न करने योग्य, (शुचिः) पवित्र, (पावकः) पवित्र करनेवाले, (अद्भुतः) आश्चर्यकारी गुण-कर्म-स्वभाववाले आप, हम उपासकों को (पवस्व) पवित्र कीजिए ॥६॥
जो स्वयं पापों का सबसे बढ़कर विनाशक, पवित्र और अद्भुत है, वह अन्यों को भी निष्पाप, पवित्र अन्तःकरणवाला और अद्भुत क्यों न करे ? ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मानं प्रार्थयते।
हे सोम ! हे रसागार परमाह्लादक जगदाधार परमेश ! (वृत्रहन्तमः) पापानामतिशयेन हन्ता, (उक्थेभिः) स्तोत्रैः (अनुमाद्यः) प्रसादनीयः, (शुचिः) पवित्रः, (पावकः) पवित्रयिता, (अद्भुतः) आश्चर्यकरगुणकर्म- स्वभावः त्वम् (पवस्व) उपासकानस्मान् पुनीहि ॥६॥
यः स्वयं पापानां हन्तृतमः पवित्रोऽद्भुतोऽस्ति सोऽन्यानपि निष्पापान् पवित्रान्तःकरणानद्भुतांश्च कुतो न कुर्यात् ? ॥६॥