इ꣢न्दो꣣ य꣡दद्रि꣢꣯भिः सु꣣तः꣢ प꣣वि꣡त्रं꣢ परि꣣दी꣡य꣢से । अ꣢र꣣मि꣡न्द्र꣢स्य꣣ धा꣡म्ने꣢ ॥९६४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्दो यदद्रिभिः सुतः पवित्रं परिदीयसे । अरमिन्द्रस्य धाम्ने ॥९६४॥
इ꣡न्दो꣢꣯ । यत् । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुतः꣢ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । प꣣रिदी꣡य꣢से । प꣣रि । दी꣡य꣢꣯से । अ꣡र꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । धा꣡म्ने꣢꣯ ॥९६४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।
हे (इन्दो) रस के भण्डार, चन्द्रमा के समान आह्लाददायक परमेश्वर ! (यत्) जब (अद्रिभिः) सिल-बट्टों के तुल्य ध्यानों से (सुतः) अभिषुत आप (पवित्रम्) पवित्र हृदय-देश में (परि दीयसे) व्याप्त होते हो, तब (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (धाम्ने) तेज के लिए, अर्थात् जीवात्मा को तेज से प्रदीप्त करने के लिए (अरम्) पर्याप्त होते हो ॥४॥
ध्यान से प्रकट किया गया परमेश्वर जीवात्मा को तेज से और ब्रह्मवर्चस से अनुप्राणित कर देता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
हे (इन्दो) रसागार, चन्द्रवदाह्लादक परमेश ! (यत्) यदा (अद्रिभिः) पाषाणैरिव ध्यानैः (सुतः) अभिषुतः त्वम् (पवित्रम्) परिपूतं हृदयदेशम् (परि दीयसे) परिगच्छसि, व्याप्नोषि। [दीयते गतिकर्मा। निघं० २।१४।] तदा (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (धाम्ने) तेजसे,जीवात्मानं तेजसा दीपयितुमिति भावः (अरम्) पर्याप्तं भवसि ॥४॥
ध्यानेन प्रकटीकृतः परमेश्वरो जीवात्मानं तेजसा ब्रह्मवर्चसेन चानुप्राणयति ॥४॥