प्र꣡ प꣢वमान धन्वसि꣣ सो꣡मेन्द्रा꣢꣯य꣣ मा꣡द꣢नः । नृ꣡भि꣢र्य꣣तो꣡ वि नी꣢꣯यसे ॥९६३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र पवमान धन्वसि सोमेन्द्राय मादनः । नृभिर्यतो वि नीयसे ॥९६३॥
प्र꣢ । प꣣वमान । धन्वसि । सो꣡म꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । मा꣡द꣢꣯नः । नृ꣡भिः꣢꣯ । य꣣तः꣢ । वि । नी꣣यसे ॥९६३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा को सम्बोधन है।
हे (पवमान) पवित्रता करनेवाले (सोम) आनन्दरस के भण्डार परमात्मन् ! (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (मादनः) आनन्ददायक आप (प्र धन्वसि) उसे प्राप्त होते हो। (नृभिः) उपासक नरों से (यतः) ध्यान किये हुए आप (वि नीयसे) विशेष रूप से हृदयप्रदेश में ले जाये जाते हो ॥३॥
अरणियों में व्याप्त भी अग्नि प्रकट होने के लिए मन्थन की अपेक्षा रखता है, वैसे ही हृदय और जीवात्मा में पहले से ही विद्यमान भी परमेश्वर प्रकट होने के लिए ध्यान की अपेक्षा करता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं सम्बोधयति।
हे (पवमान) पवित्रतां कुर्वाण (सोम)आनन्दरसागार परमात्मन् ! (इन्द्राय) जीवात्मने (मादनः) आनन्दकरः त्वम् (प्र धन्वसि) तं प्राप्नोषि। (नृभिः) उपासकैः नरैः (यतः२) गृहीतः, ध्यातः त्वम् (वि नीयसे) विशेषेण हृदयदेशं प्राप्यसे ॥३॥
अरण्योर्व्याप्तोऽप्यग्निर्यथाऽऽविर्भावाय मन्थनमपेक्षते तथैव हृदये जीवात्मनि च पूर्वत एव विद्यमानोऽपि परमेश्वर आविर्भावाय ध्यानमपेक्षते ॥३॥