अ꣣भि꣡ गावो꣢꣯ अधन्विषु꣣रा꣢पो꣣ न꣢ प्र꣣व꣡ता꣢ य꣣तीः꣢ । पु꣣नाना꣡ इन्द्र꣢꣯माशत ॥९६२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि गावो अधन्विषुरापो न प्रवता यतीः । पुनाना इन्द्रमाशत ॥९६२॥
अभि꣢ । गा꣡वः꣢꣯ । अ꣣धन्विषुः । आ꣡पः꣢꣯ । न । प्र꣣व꣡ता꣢ । य꣣तीः꣢ । पु꣣ना꣢नाः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ꣣शत ॥९६२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
(प्रवता) ढालू प्रदेश पर (यतीः) बहते हुए (आपः न) जलों के समान (गावः) गतिमय अर्थात् सक्रिय ब्रह्मानन्दरूप सोमरस की धाराएँ (अभि अधन्विषुः) जीवात्मा की ओर दौड़ रही हैं। (पुनानाः) पवित्रता करती हुई वे (इन्द्रम्) जीवात्मा को (आशत) व्याप्त कर रही हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
जल जैसे निचले प्रदेश की ओर दौड़ते हुए उस प्रदेश को पवित्र करते हैं, वैसे ही ब्रह्मानन्द नम्र जीवात्मा के प्रति दौड़ते हुए उसे पवित्र करते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(प्रवता) प्रवणवता देशेन (यतीः) गच्छन्त्यः, प्रवहन्त्यः (आपः न) उदकानि इव (गावः२) गतिमयाः सक्रियाः ब्रह्मानन्दसोमधाराः (अभि अधन्विषुः) जीवात्मानं प्रति धावन्ति। (पुनानाः) पवित्रतां कुर्वाणाः ताः (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (आशत) व्याप्नुवन्ति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
आपो यथा निम्नप्रदेशं प्रति धावन्त्यस्तं पवित्रयन्ति तथैव ब्रह्मानन्दा नम्रं जीवात्मानं प्रति द्रवन्तस्तं पुनन्ति ॥२॥