के꣣तुं꣢ कृ꣣ण्व꣢न् दि꣣व꣢꣫स्परि꣣ वि꣡श्वा꣢ रू꣣पा꣡भ्य꣢र्षसि । स꣣मुद्रः꣡ सो꣢म पिन्वसे ॥९५९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)केतुं कृण्वन् दिवस्परि विश्वा रूपाभ्यर्षसि । समुद्रः सोम पिन्वसे ॥९५९॥
के꣣तु꣢म् । कृ꣣ण्व꣢न् । दि꣣वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । रु꣣पा꣢ । अ꣣भि꣢ । अ꣣र्षसि । समुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । सो꣣म । पिन्वसे ॥९५९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी परमात्मा का वर्णन है।
हे (सोम) जगत् को उत्पन्न करनेवाले परमात्मन् ! आप (दिवः परि) चमकीले सूर्य से (केतुम्) प्रकाश को (कृण्वन्) करते हुए (विश्वा रूपा) सब रूपों में (अभ्यर्षसि) व्याप्त हो। वह आप (समुद्रः) मेघ के समान (पिन्वसे) रस की वर्षा करते हो ॥२॥ यहाँ लुप्तोपमालङ्कार है ॥२॥
जगदीश्वर जैसे सूर्य से प्रकाश को और बादल से वर्षा को बिखेरता है, वैसे ही ज्ञान का प्रकाश और आनन्द की वर्षा भी करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव परमात्मानं वर्णयति।
हे (सोम) जगदुत्पादक परमात्मन् ! त्वम् (दिवः परि) द्योतमानाद् आदित्यात् (केतुं) प्रकाशम् (कृण्वन्) कुर्वन् (विश्वा रूपा) विश्वानि रूपाणि (अभ्यर्षसि२) व्याप्नोषि। स त्वम् (समुद्रः) मेघः इव (पिन्वसे) रसवृष्टिं करोषि ॥२॥ अत्र लुप्तोपमालङ्कारः ॥२॥
जगदीश्वरो यथा सूर्यात् प्रकाशं पर्जन्याच्च वृष्टिं विसृजति तथैव ज्ञानप्रकाशमानन्दवृष्टिं चापि वितनोति ॥२॥