प꣡व꣢मानस्य विश्ववि꣣त्प्र꣢ ते꣣ स꣡र्गा꣢ असृक्षत । सू꣡र्य꣢स्येव꣣ न꣢ र꣣श्म꣡यः꣢ ॥९५८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवमानस्य विश्ववित्प्र ते सर्गा असृक्षत । सूर्यस्येव न रश्मयः ॥९५८॥
प꣡वमा꣢꣯नस्य । वि꣣श्ववित् । विश्व । वित् । प्र꣢ । ते꣣ । स꣡र्गाः꣢꣯ । अ꣣सृक्षत । सू꣡र्य꣢꣯स्य । इ꣣व । न꣢ । र꣣श्म꣡यः꣢ ॥९५८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रारम्भ में परमात्मा का विषय कहते हैं।
हे (विश्ववित्) सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! (पवमानस्य) पवित्रता देनेवाले (ते) आपकी (सर्गाः) पावन आनन्दधाराएँ (न) इस समय (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मयः इव) किरणों के समान (प्र असृक्षत) छूट रही हैं ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
परमात्मा की सर्वज्ञता और सर्वव्यापकता का विचार करके मनुष्यों को पाप-विचारों तथा पाप-कर्मों से स्वयं को हटाकर सदा पवित्र अन्तःकरणवाला होना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ परमात्मविषयः प्रोच्यते।
हे (विश्ववित्) सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! [विश्वं वेत्ति विश्वस्मिन् विद्यते इति वा विश्ववित्।] (पवमानस्य) पवित्रतां प्रयच्छतः (ते) तव (सर्गाः) पावन्य आनन्दधाराः (न२) सम्प्रति (सूर्यस्य) आदित्यस्य (रश्मयः इव) किरणाः इव (प्र असृक्षत) प्र सृज्यन्ते ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
परमात्मनः सर्वज्ञतां सर्वव्यापकतां च विचार्य मनुष्यैः पापविचारेभ्यः पापकर्मभ्यश्च स्वात्मानमपनीय सदा पवित्रान्तःकरणैर्भाव्यम् ॥१॥