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देवता: अग्निः ऋषि: प्रयोगो भार्गवः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣ग्निं꣡ वो꣢ वृ꣣ध꣡न्त꣢मध्व꣣रा꣡णां꣢ पुरू꣣त꣡म꣢म् । अ꣢च्छा꣣ न꣢प्त्रे꣣ स꣡ह꣢स्वते ॥९४६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्निं वो वृधन्तमध्वराणां पुरूतमम् । अच्छा नप्त्रे सहस्वते ॥९४६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣ग्नि꣢म् । वः꣣ । वृध꣡न्त꣢म् । अ꣣ध्वरा꣡णा꣢म् । पु꣣रूत꣡म꣢म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । न꣡प्त्रे꣢꣯ । स꣡ह꣢꣯स्वते ॥९४६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 946 | (कौथोम) 3 » 1 » 20 » 1 | (रानायाणीय) 5 » 6 » 5 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में २१ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ भी प्रकारान्तर से वही विषय दर्शाया जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मनुष्यो ! तुम (वः) तुम्हें (वृधन्तम्) बढ़ानेवाले, (अध्वराणाम्) यज्ञों के अर्थात् परोपकारार्थ किये जानेवाले कर्मों के (पुरुतमम्) अतिशय पूरक, (अग्निम्)ज्ञानप्रकाशक परमेश्वर की उपासना करो। (नप्त्रे) पतित न होने देनेवाले, अपितु उठानेवाले, (सहस्वते) बलवान् उस परमेश्वर के (अच्छ) अभिमुख होवो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

सबको चाहिए कि शुभ कर्मों में उत्साहित करनेवाले, दुष्कर्मों से निवारण करनेवाले, बलवान्, उत्कर्षकारी, बलप्रदाता परमेश्वर की नित्य उपासना करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २१ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे व्याख्याता। अत्र तस्मिन्नेव विषये प्रकारान्तरेण व्याख्यायते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे जनाः। यूयम् (वः) युष्मान् (वृधन्तम्) वर्धयन्तम्, (अध्वराणाम्) यज्ञानाम्, परोपकाराय अनुष्ठीयमानानां कर्मणाम् (पुरूतमम्) पूरयितृतमम् (अग्निम्) ज्ञानप्रकाशकं परमेश्वरम्, उपाध्वम् इति शेषः। (नप्त्रे) न पातयित्रे, प्रत्युत उत्थापयित्रे, (सहस्वते) बलवते तस्मै अग्नये परमात्मने (अच्छ) आभिमुख्यं भजत ॥१॥

भावार्थभाषाः -

सर्वैः शुभकर्मसूत्साहयिता दुष्कर्मभ्यो निवारयिता बलवानुत्कर्षकरो बलप्रदः परमेश्वरो नित्यमुपासनीयः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।१०२।७, साम० २१।