अ꣡स꣢र्जि क꣣ल꣡शा꣢ꣳ अ꣣भि꣢ मी꣣ढ्वा꣢꣫न्त्सप्ति꣣र्न꣡ वा꣢ज꣣युः꣢ । पु꣣नानो꣡ वाचं꣢꣯ ज꣣न꣡य꣢न्नसिष्यदत् ॥९४२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)असर्जि कलशाꣳ अभि मीढ्वान्त्सप्तिर्न वाजयुः । पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥९४२॥
अ꣡स꣢꣯र्जि । क꣣ल꣡शा꣢न् । अ꣣भि꣢ । मी꣣ढ्वा꣢न् । स꣡प्तिः꣢꣯ । न । वा꣣ज꣢युः । पु꣣नानः꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢न् । अ꣣सिष्यदत् ॥९४२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।
(मीढ्वान्) आनन्दरस को सींचनेवाला, (वाजयुः) स्तोताओं को आत्मबल देने का इच्छुक पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्ता रसनिधि परमेश्वर (कलशान् अभि) अन्नमय-प्राणमय-मनोमय आदि कोशों को लक्ष्य करके (असर्जि) छोड़ा गया है, (सप्तिः न) जैसे घोड़ा संग्राम को लक्ष्य करके छोड़ा जाता है। (पुनानः) पवित्रता देता हुआ वह (वाचं जनयन्) उपदेश-वाणी को उत्पन्न करता हुआ (असिष्यदत्) अन्तरात्मा में प्रवाहित हो रहा है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
परमात्मा की उपासना से आनन्दरस, आत्मबल, अन्तःकरण की पवित्रता और आत्मोत्थान का सन्देश प्राप्त होता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मविषयमाह।
(मीढ्वान्) आनन्दरसस्य सेक्ता। [मिह सेचने, लिटः क्वसुः।] (वाजयुः) वाजम् आत्मबलं स्तोतॄणां कामयमानः। [छन्दसि परेच्छायां क्यच्, ‘क्याच्छन्दसि’ इति उः प्रत्ययः।] पवमानः सोमः पावकः रसनिधिः परमेश्वरः (कलशान् अभि) अन्नमय-प्राणमय-मनोमयादिकोशान् अभिलक्ष्य (असर्जि) विसृष्टोऽस्ति, (सप्तिः न) यथा अश्वः संग्राममभिलक्ष्य विसृज्यते तद्वत्। (पुनानः) पवित्रतां सम्पादयन् सः (असिष्यदत्) अन्तरात्मं स्यन्दते ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
परमात्मोपासनेनानन्दरस आत्मबलमन्तःकरणस्य पावित्र्यमात्मो- त्थानसन्देशश्च प्राप्यते ॥३॥