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त्व꣢ꣳ ह्या꣣꣬३꣱ङ्ग꣡ दै꣢व्य꣣ प꣡व꣢मान꣣ ज꣡नि꣢मानि द्यु꣣म꣡त्त꣢मः । अ꣣मृतत्वा꣡य꣢ घो꣣ष꣡य꣢न् ॥९३८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वꣳ ह्या३ङ्ग दैव्य पवमान जनिमानि द्युमत्तमः । अमृतत्वाय घोषयन् ॥९३८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्व꣢म् । हि । अ꣣ङ्ग꣡ । दै꣣व्य । प꣡वमा꣢꣯न । ज꣡नि꣢꣯मानि । द्यु꣣म꣡त्त꣢मः । अ꣣मृतत्वा꣡य꣢ । अ꣣ । मृतत्वा꣡य꣢ । घो꣣ष꣡य꣢न् ॥९३८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 938 | (कौथोम) 3 » 1 » 17 » 1 | (रानायाणीय) 5 » 6 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५८३ पर परमात्मा के विषय में व्याख्या की गयी थी। यहाँ आचार्य और शिष्य के विषय का उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अङ्ग) भद्र, (दैव्य) विद्वान् गुरु के शिष्य, (पवमान) चित्तशुद्धिप्रदाता आचार्य ! (द्युमत्तमः) अतिशय ज्ञानप्रकाश से युक्त (त्वं हि) आप (अमृतत्वाय) सुख के प्रदानार्थ (जनिमानि) शिष्यों के ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य रूप द्वितीय जन्मों की (घोषयन्) घोषणा किया करो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

माता-पिता से एक जन्म मिलता है, दूसरा जन्म आचार्य से प्राप्त होता है। जब शिष्य विद्याव्रतस्नातक होते हैं उस समय आचार्य गुणकर्मानुसार यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है, यह वैश्य है इस प्रकार स्नातकों को वर्ण देते हैं। उस काल में प्रथम जन्म का कोई ब्राह्मण भी गुण कर्म की कसौटी से क्षत्रिय या वैश्य बन सकता है,क्षत्रिय भी ब्राह्मण या वैश्य बन सकता है और वैश्य या शूद्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५८३ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्राचार्यशिष्यविषय उपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अङ्ग) भद्र, (दैव्य) विदुषः शिष्य ! [देवाद् विदुषः गुरोरागतः दैव्यः।] (पवमान) चित्तशुद्धिप्रदातः आचार्य ! (द्युमत्तमः) अतिशयेन ज्ञानप्रकाशयुक्तः (त्वं हि) त्वं खलु अमृतत्वाय सुखप्रदानाय (जनिमानि) शिष्याणां द्वितीयजन्मानि ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यरूपाणि (घोषयन्) विज्ञापयन् भव ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मातापितृसकाशाज्जायमानमेकं जन्म, द्वितीयं च जन्माचार्यसकाशात् प्राप्यते। यदा शिष्या विद्याव्रतस्नातका जायन्ते तदाऽऽचार्यो गुणकर्मानुसारं ब्राह्माणोऽयं क्षत्रियोऽयं वैश्योऽयमिति स्नातकेभ्यो वर्णं प्रयच्छति। तस्मिन् काले प्रथमजन्मना ब्राह्मणोऽपि कश्चित् गुणकर्मनिकषेण क्षत्रियत्वं वैश्यत्वं वा,क्षत्रियोऽपि कश्चिद् ब्राह्मणत्वं वैश्यत्वं वा, वैश्यः शूद्रोऽपि वा कश्चिद् ब्राह्मणत्वं क्षत्रियत्वं वा प्राप्तुमर्हति ॥१॥

टिप्पणी: १. ९।१०८।३, ‘दिव्य’ ‘घोषयन्’ इत्यत्र क्रमेण ‘दैव्या॒’ ‘घो॒षयः॑’ इति पाठः। साम० ५८३ ‘दैव्य’ इत्यत्र ‘दैव्यं’