प꣡रि꣢ प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ क꣣वि꣡र्वया꣢꣯ꣳसि न꣣꣬प्त्यो꣢꣯र्हि꣣तः꣢ । स्वा꣣नै꣡र्या꣢ति क꣣वि꣡क्र꣢तुः ॥९३५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)परि प्रिया दिवः कविर्वयाꣳसि नप्त्योर्हितः । स्वानैर्याति कविक्रतुः ॥९३५॥
प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣या꣢ । दि꣣वः꣢ । क꣣विः꣢ । व꣡या꣢꣯ꣳसि । न꣣प्त्योः꣢ । हि꣣तः꣢ । स्वा꣣नैः꣢ । या꣣ति । कवि꣡क्र꣢तुः । क꣣वि꣢ । क्र꣣तुः ॥९३५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४७६ क्रमाङ्क पर परमात्मा के आनन्दरस के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय वर्णित है।
शिष्यों के (नप्त्योः) आत्मा और मन का (हितः) हित करनेवाला, (कविक्रतुः) मेधावान् और सदाचारी आचार्य (दिवः) यश से प्रकाशित गुरुकुल के (प्रिया वयांसि) प्रिय शिष्यों को (स्वानैः) शास्त्रोपदेश के शब्दों के साथ (परियाति) प्राप्त होता है ॥१॥
जो स्वयं विद्वान् सदाचारी और पढ़ाने में चतुर है, वही आचार्य शिष्यों को सुयोग्य बना सकता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७६ क्रमाङ्के परमात्मन आनन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।
शिष्याणाम् (नप्त्योः) आत्ममनसोः (हितः) हितकरः, (कविक्रतुः) मेधावी सत्कर्मा च आचार्यः (दिवः) यशसा प्रकाशितस्य गुरुकुलस्य (प्रिया वयांसि) प्रियान् शिष्यान् (स्वानैः) शास्त्रोपदेशकर्तृभिः शब्दैः सह (परियाति) परि प्राप्नोति ॥१॥
यः स्वयं विद्वान् सदाचारवान् अध्यापनकुशलश्चास्ति स एवाचार्यः शिष्यान् सुयोग्यान् कर्तुं प्रभवति ॥१॥