इ꣢न्द्रं꣣ त꣡ꣳ शु꣢म्भ पुरुहन्म꣣न्न꣡व꣢से꣣ य꣡स्य꣢ द्वि꣣ता꣡ वि꣢ध꣣र्त्त꣡रि꣢ । ह꣡स्ते꣢न꣣ व꣢ज्रः꣣ प्र꣡ति꣢ धायि दर्श꣣तो꣢ म꣣हा꣢न् दे꣣वो꣡ न सूर्यः꣢꣯ ॥९३४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रं तꣳ शुम्भ पुरुहन्मन्नवसे यस्य द्विता विधर्त्तरि । हस्तेन वज्रः प्रति धायि दर्शतो महान् देवो न सूर्यः ॥९३४॥
इ꣡न्द्र꣢꣯म् । तम् । शु꣣म्भ । पुरुहन्मन् । पुरु । हन्मन् । अ꣡व꣢꣯से । य꣡स्य꣢꣯ । द्वि꣣ता꣢ । वि꣣ध꣡र्तरि꣢ । वि꣣ । धर्त꣡रि꣢ । ह꣡स्ते꣢꣯न । व꣡ज्रः꣢꣯ । प्र꣡ति꣢꣯ । धा꣣यि । दर्श꣢तः । म꣣हा꣢न् । दे꣣वः꣢ । न । सू꣡र्यः꣢꣯ ॥९३४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में मनुष्य को प्रेरणा दी गयी है।
हे (पुरुहन्मन्) बहुत से शत्रुओं के विनाशक मानव ! तू (अवसे) प्रगति के लिए (तम्) उस प्रसिद्ध (इन्द्रम्) परमवीर परमेश्वर को (शुम्भ) अपने अन्तरात्मा में शोभित कर, (यस्य विधर्तरि) जिसे धारण करनेवाले मनुष्य के अन्दर (द्विता) दो प्रकार की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। परमेश्वर को अपने अन्दर धारण करनेवाले उस मनुष्य द्वारा एक ओर तो (हस्तेन) हाथ से (दर्शतः) दर्शनीय (वज्रः) शस्त्रास्त्र (प्रति धायि) पकड़ा जाता है और दूसरी ओर वह (देवः सूर्यः न) प्रकाशक सूर्य के समान (महान्) महिमाशाली हो जाता है ॥२॥
अपने अन्तरात्मा में परमात्मा को धारण करने से मनुष्य के अन्दर महान् बल, साहस, तेज, धैर्य और शत्रुपराजय-सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा-जीवात्मा, उपास्य-उपासक एवं मानव-प्रेरणा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पञ्चम अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ मानवं प्रेरयति।
हे (पुरुहन्मन्) बहूनां शत्रूणां हन्तः मानव ! त्वम् (अवसे) प्रगतये (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) परमवीरं परमेश्वरम् (शुम्भ) स्वात्मनि शोभय, (यस्य विधर्तरि) यस्य विधारके जने (द्विता) द्विधा शक्तिरूत्पद्यते। तेन परमात्मविधारकेण जनेन एकतः (हस्तेन) पाणिना (दर्शतः) दर्शनीयः (वज्रः) आयुधम् (प्रति धायि२) प्रतिधीयते, अपरतश्च सः (देवः सूर्यः न) प्रकाशकः आदित्यः इव (महान्) महिमवान् जायते ॥२॥
स्वात्मनि परमात्मधारणेन मनुष्ये महद् बलं साहसं तेजो धैर्य शत्रुपराजयसामर्थ्यं चोत्पद्यते ॥२॥ अस्मिन् खण्डे परमात्म-जीवात्मनोरुपास्योपासकयोर्मानवप्रेरणायाश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेदितव्या ॥