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पु꣣नानो꣡ अ꣢क्रमीद꣣भि꣢꣫ विश्वा꣣ मृ꣢धो꣣ वि꣡च꣢र्षणिः । शु꣣म्भ꣢न्ति꣣ वि꣡प्रं꣢ धी꣣ति꣡भिः꣢ ॥९२४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पुनानो अक्रमीदभि विश्वा मृधो विचर्षणिः । शुम्भन्ति विप्रं धीतिभिः ॥९२४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु꣣ना꣢नः । अ꣣क्रमीत् । अभि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । मृ꣡धः꣢꣯ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः । शुम्भ꣡न्ति꣢ । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । धी꣡तिभिः꣢ ॥९२४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 924 | (कौथोम) 3 » 1 » 12 » 1 | (रानायाणीय) 5 » 4 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा का परमात्मा विषयक अर्थ पूर्वार्चिक में ४८८ क्रमाङ्क पर देखना चाहिए। यहाँ आचार्य-शिष्य का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पुनानः) मनों को शुद्ध करता हुआ (विचर्षणिः)सब शास्त्रों का पार-द्रष्टा सोम आचार्य, शिष्यों की (विश्वाः मृधः) सब हिंसावृत्तियों को (अभि अक्रमीत्) विनष्ट कर देता है। उस (विप्रम्) मेधावी ब्राह्मण आचार्य को, शिष्यगण (धीतिभिः) शिष्यों के योग्य कर्मों द्वारा (शुम्भन्ति) शोभित करते हैं, अर्थात् उससे बताये हुए कर्मों को करते हुए उसके गौरव को बढ़ाते हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे आचार्य शिष्यों के दोषों का परिमार्जन करके उन्हें निष्पाप करता है, वैसे ही शिष्यों को भी चाहिए कि वे आचार्य के आदेश को शिरोधार्य करके उसे प्रसन्न करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमाया ऋचः परमात्मविषयोऽर्थः पूर्वार्चिके ४८८ क्रमाङ्के द्रष्टव्यः। अत्राचार्यशिष्यविषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पुनानः) मनांसि शोधयन् (विचर्षणिः)सर्वशास्त्रपारदृश्वा सोमः आचार्यः (विश्वाः मृधः) शिष्याणां सर्वा हिंसावृत्तीः (अभि अक्रमीत्) अभ्याक्रामति, विनाशयति। तम् (विप्रम्) मेधाविनं ब्राह्मणम् आचार्यम् शिष्याः (धीतिभिः) शिष्योचितकर्मभिः (शुम्भन्ति) शोभयन्ति, तदुक्तानि कर्माण्याचरन्तस्तद्गौरवं वर्द्धयन्तीत्यर्थः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथाचार्यः शिष्याणां दोषान् परिमृज्य तान् निष्कलुषान् विधत्ते तथैव शिष्यैरप्याचार्यस्यादेशं शिरसि धारयित्वा स प्रसादनीयः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४०।१, साम० ४८८।