त꣢वा꣣ह꣡ꣳ सो꣢म रारण स꣣ख्य꣡ इ꣢न्दो दि꣣वे꣡दि꣢वे । पु꣣रूणि꣢ बभ्रो꣣ नि꣡ च꣢रन्ति꣣ मा꣡मव꣢꣯ प꣣रिधी꣢꣫ꣳरति꣣ ता꣡ꣳइ꣢हि ॥९२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तवाहꣳ सोम रारण सख्य इन्दो दिवेदिवे । पुरूणि बभ्रो नि चरन्ति मामव परिधीꣳरति ताꣳइहि ॥९२२॥
त꣡व꣢꣯ । अ꣡ह꣢म् । सो꣣म । रारण । सख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । इ꣣न्दो । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे । पुरू꣡णि꣢ । ब꣣भ्रो । नि꣢ । च꣣रन्ति । मा꣢म् । अ꣡व꣢꣯ । प꣣रिधी꣢न् । प꣣रि । धी꣢न् । अ꣡ति꣢꣯ । तान् । इ꣣हि ॥९२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ५१६ क्रमाङ्क पर उपास्य-उपासक विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय वर्णित है।
हे (इन्दो) विद्यारस से सराबोर करनेवाले, तेजस्वी (सोम) विद्यारस के भण्डार आचार्य ! (अहम्) मैं शिष्य (तव सख्ये) आपकी मैत्री में (दिवे दिवे) प्रतिदिन (रारण) वेदादि शास्त्रों का उच्चारण करता हूँ। हे (बभ्रो) सब शिष्यों का भरण-पोषण करनेवाले आचार्य! (पुरूणि) बहुत से दोष (माम्)मुझ शिष्य को (नि अव चरन्ति) कष्ट दे रहे हैं, (परिधीन् तान्) चारों ओर से घेरनेवाले उन दोषों को (अति इहि) दूर कर दीजिए ॥१॥
गुरुओं का यह कतर्व्य है कि वे शिष्यों में उत्पन्न हुए दोषों को दूर करके उन्हें निर्मल चरित्रवाला और विद्वान् बनायें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५१६ क्रमाङ्के उपास्योपासकविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।
हे (इन्दो) विद्यारसेन क्लेदयितः, तेजस्विन् (सोम) विद्यारसागार आचार्य ! (अहम्) शिष्यः (तव सख्ये) त्वदीये सखित्वे (दिवे-दिवे) दिने दिने (रारण)वेदशास्त्राणि उच्चारयामि। [रण शब्दे, लडर्थे लिट्। उत्तमैकवचने ररण इति प्राप्तेऽभ्यासदीर्घश्छान्दसः।]हे (बभ्रो) सर्वेषां शिष्याणां भरणपोषणकर्तः आचार्य ! (पुरूणि) बहूनि दोषजातानि (माम्) शिष्यम् (नि अव चरन्ति) बाधन्ते, (परिधीन् तान्) परिवारकान् तान् दोषान् (अति इहि) अतिक्रमस्व, विनाशय ॥१॥
गुरूणामिदं कर्त्तव्यं यत्ते शिष्येषु प्रादुर्भूतान् सर्वान् दोषान् दूरीकृत्य तान् निर्मलचरित्रान् विदुषश्च कुर्युः ॥१॥