प꣡व꣢मान धि꣣या꣢ हि꣣तो꣡३ऽभि꣢꣫ योनिं꣣ क꣡नि꣢क्रदत् । ध꣡र्म꣢णा वा꣣यु꣢मारु꣢꣯हः ॥९२१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवमान धिया हितो३ऽभि योनिं कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमारुहः ॥९२१॥
प꣡व꣢꣯मान । धि꣣या꣢ । हि꣣तः꣢ । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । ध꣡र्म꣢꣯णा । वा꣣यु꣢म् । आ । अ꣣रुहः ॥९२१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।
हे (पवमान) चित्तशोधक आचार्य ! (धिया) प्रज्ञा और कर्म से (हितः) शिष्यों के हितकारी आप (योनिम् अभि) यम-नियम आदियों के आश्रय शिष्यवर्ग के प्रति (कनिक्रदत्) शास्त्रों का उपदेश करते हुए (धर्मणा)धर्म से (वायुम्) प्रगतिशील शिष्यवर्ग को (आरुहः) परम उन्नति की सीढ़ी पर चढ़ा देते हो ॥३॥
आचार्य विद्या आदि के दान से शिष्यों का बहुत उपकार करते हैं, अतः शिष्यों को चाहिए कि मन, वचन, कर्म से उनका सम्मान करें और दूसरों को विद्या आदि देकर उनका ऋण चुकायें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयं वर्णयति।
हे (पवमान) चित्तशोधक आचार्य ! (धिया) प्रज्ञया कर्मणा च (हितः) शिष्याणां हितकरः (त्वम् योनिम् अभि) यमनियमादीनामाश्रयभूतं शिष्यवर्गं प्रति (कनिक्रदत्) शास्त्राणि उपदिशन् (धर्मणा) धर्मेण (वायुम्) प्रगतिशीलं शिष्यवर्गम् (आरुहः) परमोत्कर्षसोपानम् आरोहयसि। [आङ्पूर्वाद् रुहेर्णिज्गर्भाल्लडर्थे लङि रूपम्] ॥३॥
आचार्यो विद्यादिदानेन शिष्याणां महदुपकरोतीति स शिष्यैर्मनसा वाचा कर्मणा च सम्माननीयः, परेभ्यो विद्यादिदानेन च तदीयमृणं प्रतियातनीयम् ॥३॥