सं꣢ दे꣣वैः꣡ शो꣢भते꣣ वृ꣡षा꣢ क꣣वि꣢꣫र्यो꣣नाव꣡धि꣢ प्रि꣣यः꣢ । प꣡व꣢मानो꣣ अ꣡दा꣢भ्यः ॥९२०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सं देवैः शोभते वृषा कविर्योनावधि प्रियः । पवमानो अदाभ्यः ॥९२०॥
सम् । दे꣣वैः꣢ । शो꣣भते । वृ꣡षा꣢꣯ । क꣡विः꣢ । यो꣡नौ꣢꣯ । अ꣡धि꣢꣯ । प्रि꣣यः꣢ । प꣡व꣢꣯मानः । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः ॥९२०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर गुरु-शिष्य का ही विषय है।
(वृषा) ज्ञान की वर्षा करनेवाला, (कविः) मेधावी, (प्रियः) शिष्यों से प्रीति रखनेवाला, (अदाभ्यः) ठगा न जा सकनेवाला (पवमानः) पवित्रतादायक आचार्य (योनौ अधि) गुरुकुलरूप घर में (देवैः) दिव्यगुणी शिष्यों के साथ (सं शोभते) भली-भाँति शोभा पाता है ॥२॥
सुयोग्य गुरु और सुयोग्य शिष्य आपस में मिलकर बहुत अधिक शोभा पाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि गुरुशिष्यविषयमाह।
(वृषा) ज्ञानवर्षकः, (कविः) मेधावी, (प्रियः) शिष्याणां वत्सलः, (अदाभ्यः) दब्धुं वञ्चयितुमशक्यः (पवमानः) पवित्रयिता आचार्यः (योनौ अधि) गृहे, गुरुकुले इत्यर्थः। [योनिरिति गृहनाम। निघं० १।१२।] (देवैः) दिव्यगुणयुक्तैः शिष्यैः सह (सं शोभते) संविभाति ॥२॥
सुयोग्या गुरवः सुयोग्याः शिष्याश्च परस्परं मिलित्वाऽतितरां शोभन्ते ॥२॥