शृ꣣णुतं꣡ ज꣢रि꣣तु꣢꣫र्हव꣣मि꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ व꣡न꣢तं꣣ गिरः꣢ । ई꣢शाना꣡ पि꣢प्यतं꣣ धि꣡यः꣢ ॥९१७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)शृणुतं जरितुर्हवमिन्द्राग्नी वनतं गिरः । ईशाना पिप्यतं धियः ॥९१७॥
शृणुत꣢म् । ज꣣रितुः꣢ । ह꣡व꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢꣯ । व꣡न꣢꣯तम् । गि꣡रः꣢꣯ । ई꣣शाना꣢ । पि꣣प्यतम् । धि꣡यः꣢꣯ ॥९१७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में आत्मा और मन को उद्बोधन देते हैं।
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! तुम दोनों (जरितुः) प्रशंसक के (हवम्) उद्बोधन को (शृणुतम्) सुनो। (गिरः) स्तुतिवाणियों को (वनतम्) उच्चारित करो। (ईशाना) देह के अधिष्ठाता तुम दोनों (धियः) ज्ञानों और कर्मों को (पिप्यतम्) बढ़ाओ ॥२॥ यहाँ एक कर्त्ता-कारक से अनेक क्रियाओं का योग होने से दीपक अलङ्कार है ॥२॥
मनुष्य को चाहिए कि आत्मा और मन का उपयोग करके परमेश्वर की उपासना, ज्ञान का संग्रह तथा सत्कर्म करे ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथात्ममनसी प्रोद्बोध्येते।
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! युवाम् (जरितुः) प्रशंसकस्य (हवम्) उद्बोधनम् (शृणुतम्) आकर्णयतम्। (गिरः) स्तुतिवाचः (वनतम्) उच्चारयतम्। [वन शब्दे संभक्तौ च।] (ईशाना) ईशानौ, देहस्य अधिष्ठातारौ युवाम् (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि च (पिप्यतम्) वर्धयतम्। [ओप्यायी वृद्धौ धातोर्लोटि प्यायः पीभावश्छान्दसः] ॥२॥ अत्रैकेन कर्तृकारकेणानेकक्रियायोगाद् दीपकालङ्कारः ॥२॥
मनुष्येणात्ममनसी उपयुज्य परमेश्वरोपासना ज्ञानार्जनं सत्कर्माणि च कार्याणि ॥२॥