इ꣣यं꣡ वा꣢म꣣स्य꣡ मन्म꣢꣯न꣣ इ꣡न्द्रा꣢ग्नी पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिः । अ꣣भ्रा꣢द्वृ꣣ष्टि꣡रि꣢वाजनि ॥९१६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इयं वामस्य मन्मन इन्द्राग्नी पूर्व्यस्तुतिः । अभ्राद्वृष्टिरिवाजनि ॥९१६॥
इ꣣य꣢म् । वा꣣म् । अ꣢स्य । म꣡न्म꣢꣯नः । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिः । पू꣣र्व्य꣢ । स्तु꣣तिः । अभ्रा꣢त् । वृ꣣ष्टिः꣢ । इ꣣व । अजनि ॥९१६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में परमेश्वर की स्तुति का विषय है।
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (मन्मनः) ज्ञानी (अस्य) इस परमेश्वर की (इयम्) यह (वाम्) तुम्हारे द्वारा की गयी (पूर्व्यस्तुतिः) श्रेष्ठ स्तुति (अभ्रात्) बादल से (वृष्टिः इव) वर्षा के समान (अजनि) हुई है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे बादल से बरसी हुई जलधारा भूमि को आर्द्र करती है, वैसे ही आत्मा और मन से की गयी स्तुति परमेश्वर को आर्द्र (स्नेहयुक्त) करती है। आर्द्र भूमि जैसे वृक्ष, वनस्पति आदियों को उत्पन्न करती है, वैसे ही आर्द्र किया गया परमेश्वर स्तोता के हृदय में सद्गुणों को उत्पन्न करता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ परमेश्वरस्तुतिविषयमाह।
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (मन्मनः) मन्तुः (अस्य) परमेश्वरस्य (इयम्) एषा (वाम्) युवयोः युष्मत्कृता इत्यर्थः (पूर्व्यस्तुतिः) पूर्व्या श्रेष्ठा स्तुतिः (अभ्रात्) मेघात् (वृष्टिः इव) वर्षा इव (अजनि) जाताऽस्ति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
यथा मेघाद् वृष्टा वारिधारा भुवमार्द्रां करोति तथैवात्ममनःकृता स्तुतिः परमेश्वरमार्द्रयति आर्द्रा भूर्यथा वृक्षवनस्पत्यादीन् प्रसूते तथाऽऽर्द्रितः परमेश्वरः स्तोतुर्हृदये सद्गुणान् प्रसूते ॥१॥