इ꣣च्छ꣡न्नश्व꣢꣯स्य꣣ य꣢꣫च्छिरः꣣ प꣡र्व꣢ते꣣ष्व꣡प꣢श्रितम् । त꣡द्वि꣢दच्छर्य꣣णा꣡व꣢ति ॥९१४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इच्छन्नश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम् । तद्विदच्छर्यणावति ॥९१४॥
इ꣡च्छ꣢न् । अ꣡श्व꣢꣯स्य । यत् । शि꣡रः꣢꣯ । प꣡र्वते꣢꣯षु । अ꣡प꣢꣯श्रितम् । अ꣡प꣢꣯ । श्रि꣣तम् । त꣢त् । वि꣣दत् । शर्यणा꣡व꣢ति ॥९१४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः जगदीश्वर का कर्म वर्णित है।
इन्द्र जगदीश्वर (अश्वस्य) अन्तरिक्ष में व्याप्त बादल के (पर्वतेषु) पहाड़ों पर (अपश्रितम्) गिरे हुए (यत्) जिस (शिरः) जीर्ण-शीर्ण जल को (इच्छन्) फिर से भाप बनाना चाहता है (तत्) उस जल को वह (शर्यणावति)नदियों से युक्त समुद्र में (विदत्) पा लेता है। अभिप्राय यह है कि जो बादल का जल भूमि पर बरस कर नदियों द्वारा समुद्र में चला जाता है, उसे फिर वह सूर्य द्वारा भाप बनाकर अन्तरिक्ष में ले जाकर बादल के रूप में परिणत कर देता है ॥२॥
बादल से वर्षा और बरसे हुए जल से फिर बादल का निर्माण इस चक्र को जगदीश्वर ही चला रहा है। यदि ऐसी उसकी की हुई सुव्यवस्था न होती तो यह भूमण्डल शुष्क एवं वृक्ष-ओषधि-लता आदि से विहीन हो जाता ॥२॥ इस मन्त्र पर सायणाचार्य द्वारा प्रोक्त इतिहास एवं उसका प्रत्याख्यान पूर्वार्चिक मन्त्र क्रमाङ्क १७९ के भाष्य में देखना चाहिए ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्जगदीश्वरकर्म वर्णयति।
इन्द्रः जगदीश्वरः (अश्वस्य) अन्तरिक्षे व्याप्तस्य मेघस्य (पर्वतेषु) शैलेषु (अपश्रितम्) पतितम् (यत् शिरः) शीर्णम् उदकम् (इच्छन्) पुनः वाष्पतां नेतुम् वाञ्छन् भवति (तत्) उदकम् सः (शर्यणावति) शर्यणाः नद्यः शृणन्ति कूलानि तद्वान् शर्यणावान् समुद्रः तस्मिन् समुद्रे (विदत्) लभते। यन्मेघोदकं भूमौ पतित्वा नदीभिः समुद्रं गच्छति तज्जगदीश्वरः पुनरपि वाष्पीकृत्यान्तरिक्षं नीत्वा मेघरूपेण परिणमयतीति भावः ॥२॥२
मेघाद् वृष्टिर्वृष्टाज्जलाच्च पुनर्मेघ इति चक्रं जगदीश्वर एव चालयति। यदीदृशी तत्कृता सुव्यवस्था नाभविष्यत् तर्हि भूमण्डलमिदं शुष्कं वृक्षौषधिलतादिविहीनं चावर्तिष्यत ॥२॥ एतन्मन्त्रविषयकः सायणाचार्यप्रोक्त इतिहासस्तत्प्रत्याख्यानं च पूर्वार्चिके १७९ संख्यकमन्त्रस्य भाष्ये द्रष्टव्यम् ॥