इ꣡न्द्रो꣢ दधी꣣चो꣢ अ꣣स्थ꣡भि꣢र्वृ꣣त्रा꣡ण्यप्र꣢꣯तिष्कुतः । ज꣣घा꣡न꣢ नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥९१३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ॥९१३॥
इ꣡न्द्रः꣢꣯ । द꣣धीचः꣢ । अ꣢स्थ꣡भिः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः । जघा꣡न꣢ । न꣣वतीः꣢ । न꣡व꣢꣯ ॥९१३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १७९ क्रमाङ्क पर जीवात्मा और परमात्मा के विषय में व्याख्यात की जा चुकी है। यहाँ जगदीश्वर का कर्म वर्णित किया जा रहा है।
(अप्रतिष्कुतः) कोई भी शत्रु जिसका मुकाबला नहीं कर सकता, ऐसा (इन्द्रः) शत्रुविदारक जगदीश्वर (दधीचः) लोकों के धारणकर्ता तथा अपनी धुरी पर घूमनेवाले सूर्य की (अस्थभिः) अस्थियों के तुल्य किरणों से (नव नवतीः) निन्यानवे प्रतिशत (वृत्राणि) रोग, मलिनता आदियों को (जघान) नष्ट कर देता है ॥१॥
अहो, कैसा है जगदीश्वर का महान् कर्म कि वह विशाल सूर्यरूप साधन से प्रायः सभी रोग, मल आदि को नष्ट करके हमारे जीवनों को सुरक्षित कर देता है। यदि वह मलों को हरनेवाले सूर्य को न रचता तो भूमण्डल अनेक व्याधियों से और सारे मलों से परिपूर्ण होकर निवासयोग्य भी न रहता ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १७९ क्रमाङ्के जीवात्मपरमात्मविषये व्याख्याता। अत्र जगदीश्वरकर्मोच्यते।
(अप्रतिष्कुतः) केनापि शत्रुणा अप्रतिकृतः (इन्द्रः) शत्रुविदारको जगदीश्वरः (दधीचः) आदित्यस्य। [दधातीति दधिः। आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७१ इत्यनेन दधातेः किः प्रत्ययः। दधिः धारकः सन् अञ्चति स्वधुरि भ्रमतीति दध्यङ्, तस्य दधीचः आदित्यस्य।] (अस्थभिः) अस्थितुल्यैः किरणसमूहैः (नवनवतीः) प्रतिशतं नवनवतिम् (वृत्राणि) रोगमालिन्यादीनि (जघान) हन्ति ॥१॥२
अहो, कीदृशं जगदीश्वरस्य महत् कर्म यत् स विशालेन सूर्यरूपेण साधनेन प्रायशः सर्वाण्येव रोगमलादीनि हत्वाऽस्माकं जीवनानि सुरक्षितानि करोति। यदि स मलापहारकं सूर्यं न व्यरचयिष्यत् तर्हि भूमण्डलं नानाव्याधिभिर्निखिलैर्मलैश्च परिपूर्णं सन्निवासयोग्यमपि नाभविष्यत् ॥१॥३