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देवता: मित्रावरुणौ ऋषि: गृत्समदः शौनकः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ता꣢ स꣣म्रा꣡जा꣢ घृ꣣ता꣡सु꣢ती आदि꣣त्या꣡ दानु꣢꣯न꣣स्प꣡ती꣢ । स꣡चे꣢ते꣣ अ꣡न꣢वह्वरम् ॥९१२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ता सम्राजा घृतासुती आदित्या दानुनस्पती । सचेते अनवह्वरम् ॥९१२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता꣢ । स꣣म्रा꣡जा꣢ । स꣣म् । रा꣡जा꣢꣯ । घृ꣣ता꣡सु꣢ती । घृ꣡त꣢ । आ꣣सुतीइ꣡ति꣢ । आ꣣दित्या꣢ । आ꣣ । दित्या꣢ । दा꣡नु꣢꣯नः । पती꣢꣯इ꣢ति꣢ । स꣡चे꣢꣯ते꣣इ꣡ति꣢ । अ꣡न꣢꣯वह्वरम् । अन् । अ꣣वह्वरम् ॥९१२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 912 | (कौथोम) 3 » 1 » 7 » 3 | (रानायाणीय) 5 » 3 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर वही विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—आत्मा और मन के पक्ष में। (ता) वे दोनों (घृतासुती) तेज को प्रेरित करनेवाले, (आदित्या) ज्ञान से प्रकाशमान, (दानुनः पती) दान के अधीश्वर, (सम्राजा) देह के सम्राट् आत्मा और मन (अनवह्वरम्) अकुटिल अर्थात् सरल मार्ग का (सचेते) सेवन करें ॥ द्वितीय—राजा और प्रधानमन्त्री के पक्ष में। (ता) वे दोनों (घृतासुती) राष्ट्र में घी-दूध आदि को सींचनेवाले, (आदित्या) ज्ञान-प्रकाश से भासमान, (दानुनः पती) दान के स्वामी अर्थात् दान के देनेवाले (सम्राजा) तेजस्वी राजा और प्रधानमन्त्री (अनवह्वरम्) अकुटिल व्यवहार का (सचेते) सेवन करें ॥३॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

आत्मा और मन में अगाध शक्ति निहित है। किन्तु उन्हें चाहिए कि वे सरल मार्ग का ही आश्रय लें, कुटिल का नहीं। इसी प्रकार राजा और प्रधानमन्त्री भी सरल मार्ग से ही व्यवहार करते हुए राष्ट्र को उन्नत कर सकते हैं ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—आत्ममनःपक्षे। (ता) तौ (घृतासुती) तेजःप्रेरकौ। [घृतं तेजः, घृ क्षरणदीप्त्योः।] (आदित्या) आदित्यौ, ज्ञानेन प्रकाशमानौ (दानुनः पती) दानस्य अधीश्वरौ। [दा धातोः दाभाभ्यां नुः। उ० ३।३२ इति नुः प्रत्ययः।] (सम्राजा) देहस्य सम्राजौ आत्ममनसी (अनवह्वरम्) अकुटिलं सरलं मार्गम्। [ह्वृ कौटिल्ये।] (सचेते) सेवेताम्। [षच सेवने च भ्वादिः, लेट्] ॥ द्वितीयः—नृपतिप्रधानमन्त्रिपक्षे। (ता) तौ (घृतासुती) राष्ट्रे घृतदुग्धादिसेक्तारौ, (आदित्या) ज्ञानप्रकाशेन भासमानौ, (दानुनः पती) दानस्य स्वामिनौ, दानदातारावित्यर्थः, (सम्राजा) सम्राजौ तेजस्विनौ नृपतिप्रधानमन्त्रिणौ (अनवह्वरम्) अकुटिलं व्यवहारम् (सचेते) सेवेताम् ॥३॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

आत्ममनसोरगाधा शक्तिरन्तर्निहिता। किन्तु ताभ्यां सरल एव पन्था आश्रयणीयो न वक्रः। तथैव नृपतिप्रधानमन्त्रिणावपि सरलेनैव पथा व्यवहरन्तौ राष्ट्रमुन्नेतुं प्रभवतः ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० २।४१।६। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सूर्यचन्द्रविषये व्याख्यातवान्।