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अ꣣य꣢꣫ꣳ स यो दि꣣व꣡स्परि꣢꣯ रघु꣣या꣡मा प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣢ । सि꣡न्धो꣢रू꣣र्मा꣡ व्यक्ष꣢꣯रत् ॥९००॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अयꣳ स यो दिवस्परि रघुयामा पवित्र आ । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरत् ॥९००॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣य꣢म् । सः । यः । दि꣣वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । र꣡घुया꣡मा꣢ । र꣣घु । या꣡मा꣢꣯ । पवि꣡त्रे꣢ । आ । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मा꣢ । व्य꣡क्ष꣢꣯रत् । वि꣣ । अ꣡क्ष꣢꣯रत् ॥९००॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 900 | (कौथोम) 3 » 1 » 4 » 3 | (रानायाणीय) 5 » 2 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द-रस का प्रवाह वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अयम्) यह हमसे अनुभव किया जाता हुआ (सः) वह प्रसिद्ध ब्रह्मानन्दरस है, (यः) जो (रघुयामा) शीघ्र गतिवाला होता हुआ (दिवः परि) आनन्दमय परमेश्वर के पास से (पवित्रे आ) पवित्र हृदय में आकर (सिन्धोः ऊर्मौ) आत्मारूप समुद्र की तरङ्ग में (व्यक्षरत्) क्षरित हो रहा है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सोमौषधि का रस दशापवित्र नामक छन्नी से क्षरित होकर द्रोणकलश में गिरता है, अथवा जैसे चाँदनी का रस पवित्र अन्तरिक्ष से क्षरित होकर समुद्र में गिरता है, वैसे ही परमात्मा के पास से आया हुआ आनन्दरस पवित्र हृदय से क्षरित होकर अन्तरात्मा में आता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ ब्रह्मानन्दरसप्रवाहं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अयम्) एषः अस्माभिरनुभूयमानः (सः) प्रसिद्धः ब्रह्मानन्दरसो वर्तते। (यः रघुयामा) शीघ्रगतिः सन् (दिवः परि) आनन्दमयात् परमेश्वरात्। [दिवु धातोरर्थेषु मोदार्थोऽपि परिगणितः।] (पवित्रे आ) पवित्रे हृदये आगम्य (सिन्धोः ऊर्मौ) आत्मसमुद्रस्य तरङ्गे (व्यक्षरत्) परिस्रवति ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा सोमौषधिरसो दशापवित्रात् क्षरित्वा द्रोणकलशे पतति यथा वा चन्द्रिकारसः पवित्रादन्तरिक्षात् क्षरित्वा समुद्रे पतति तथैव परमात्मनः सकाशादागत आनन्दरसः पवित्राद् हृदयात् क्षरित्वाऽन्तरात्मानमागच्छति ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।३९।४।