प꣣रिष्कृण्व꣡न्ननि꣢꣯ष्कृतं꣣ ज꣡ना꣢य या꣣त꣢य꣣न्नि꣡षः꣢ । वृ꣣ष्टिं꣢ दि꣣वः꣡ परि꣢꣯ स्रव ॥८९९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)परिष्कृण्वन्ननिष्कृतं जनाय यातयन्निषः । वृष्टिं दिवः परि स्रव ॥८९९॥
प꣣रिष्कृण्व꣢न् । प꣣रि । कृण्व꣢न् । अ꣡नि꣢꣯ष्कृतम् । अ । नि꣣ष्कृतम् । ज꣡ना꣢य । या꣣त꣡य꣢न् । इ꣡षः꣢꣯ । वृ꣣ष्टि꣢म् । दि꣣वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व ॥८९९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं।
हे पवमान सोम अर्थात् पवित्रतादायक रसागार परमेश्वर ! आप (अनिष्कृतम्) अपरिष्कृत हृदय को (परिष्कृण्वन्) परिष्कृत करते हुए और (जनाय) उपासक मनुष्य के लिए (इषः) आक्रमणकारी विघ्नों की (यातयन्) हिंसा करते हुए (दिवः) आनन्दमय कोश से (वृष्टिम्) आनन्दरस की वर्षा (परि स्रव) प्रवाहित कीजिए ॥२॥
जैसे बादल से वर्षा होने पर सूखी भूमि सरस हो जाती है, वैसे ही सबके आत्मा में स्थित परमात्मा के पास से आनन्दरस की वर्षा होने पर आत्मा, मन, बुद्धि आदि सब सरस और सप्राण हो जाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरः प्रार्थ्यते।
हे पवमान सोम, पवित्रतादायक रसागार परमेश ! त्वम् (अनिष्कृतम्) अपरिष्कृतं हृदयम् (परिष्कृण्वन्) परिष्कुर्वन्, किञ्च (जनाय) उपासकाय (इषः) आक्रान्तॄन् विघ्नान्। [इष्यन्ति आक्रामन्ति इति इषः। इष गतौ, दिवादिः।] (यातयन्) हिंसन् [यातयतिः वधकर्मा। निघं० २।१९] (दिवः) आनन्दमयकोशात् (वृष्टिम्) आनन्दरसस्य धारासारम् (परि स्रव) प्रवाहय ॥२॥
यथा मेघाद् वृष्टौ सत्यां शुष्का भूमिः सरसा जायते तथैव सर्वेषामात्मनि स्थितात् परमात्मनः सकाशाद् आनन्दरसस्य वृष्टौ सत्यामात्ममनोबुद्ध्यादयः सर्वे सरसाः सप्राणाश्च भवन्ति ॥२॥