आ꣣शु꣡र꣢र्ष बृहन्मते꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣ये꣢ण꣣ धा꣡म्ना꣢ । य꣡त्र꣢ दे꣣वा꣢꣫ इति꣣ ब्रु꣡व꣢न् ॥८९८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आशुरर्ष बृहन्मते परि प्रियेण धाम्ना । यत्र देवा इति ब्रुवन् ॥८९८॥
आ꣣शुः꣡ । अ꣣र्ष । बृहन्मते । बृहत् । मते । प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣ये꣡ण꣢ । धा꣡म्ना꣢꣯ । य꣡त्र꣢꣯ । दे꣡वाः꣢ । इ꣡ति꣢꣯ । ब्रु꣡व꣢꣯न् ॥८९८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में परमात्मा का आह्वान है ॥
हे (बृहन्मते) महामति से युक्त एवं महामति को देनेवाले परमेश ! (यत्र देवाः) जहाँ दिव्यगुण रहते हैं, वहां मेरा निवास है (इति ब्रुवन्) यह कहते हुए आप (प्रियेण धाम्ना) अपने मधुर तेज के साथ (आशुः) शीघ्रकारी होते हुए (परि अर्ष) हमारे जीवन में चारों ओर व्याप्त हो जाएँ ॥१॥
परमात्मा की कृपा प्राप्त करने के लिए अपने आत्मा में दिव्य गुणों को धारण करना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ परमात्मानमाह्वयति।
हे (बृहन्मते) महामते, महामतिप्रदायक परमेश ! [बृहती मतिः यस्य यस्माद् वा स बृहन्मतिः।] (यत्र देवाः) यत्र दिव्यगुणाः सन्ति तत्र मम निवासः (इति ब्रुवन्) इति कथयन् त्वम् (प्रियेण धाम्ना) स्वकीयेन मधुरेण तेजसा सह (आशुः) शीघ्रः सन् (परि अर्ष) अस्माकं जीवनं परितो व्याप्नुहि ॥१॥
परमात्मनः कृपां प्राप्तुं स्वात्मनि दिव्यगुणा धारणीयाः ॥१॥