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शृ꣣ण्वे꣢ वृ꣣ष्टे꣡रि꣢व स्व꣣नः꣡ पव꣢꣯मानस्य शु꣣ष्मि꣡णः꣢ । च꣡र꣢न्ति वि꣣द्यु꣡तो꣢ दि꣣वि꣢ ॥८९४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

शृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः । चरन्ति विद्युतो दिवि ॥८९४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शृ꣣ण्वे꣢ । वृ꣣ष्टेः꣢ । इ꣣व । स्वनः꣢ । प꣡व꣢꣯मानस्य । शु꣣ष्मि꣡णः꣢ । च꣡र꣢꣯न्ति । वि꣣द्यु꣡तः꣢ । वि꣣ । द्यु꣡तः꣢꣯ । दि꣣वि꣢ ॥८९४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 894 | (कौथोम) 3 » 1 » 3 » 3 | (रानायाणीय) 5 » 1 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और आचार्य का ही विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(शुष्मिणः) बलवान् (पवमानस्य) चित्तशुद्धिकर्ता परमात्मा वा आचार्य का (स्वनः) आनन्दप्रवाह वा ज्ञानप्रवाह का शब्द (वृष्टेः स्वनः इव) वर्षा के शब्द के समान है, उसे मैं (शृण्वे) सुन रहा हूँ। (दिवि) आकाश के समान मेरे आत्मा में (विद्युतः चरन्ति) बिजलियों के सदृश अध्यात्म-ज्योतियाँ विचर रही हैं ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे वर्षाकाल में शब्द के साथ बादल से जल-धाराएँ गिरती हैं और बिजलियाँ चमकती हैं, वैसे ही आचार्य के पास से ज्ञान का प्रवाह होने पर शब्द आचार्य के मुख से निकलते हैं और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले जीवात्मा में ज्ञान की ज्योतियाँ चमकती हैं। उसी प्रकार परमात्मा के पास से आनन्दरस का प्रवाह होने पर भी कोई दिव्य वर्षा की रिमझिम सी सुनाई देती है और अलौकिक ज्योतियों का भी अनुभव होता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथः पुनः परमात्माचार्ययोरेव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(शुष्मिणः) बलवतः (पवमानस्य) चित्तशोधकस्य परमात्मनः आचार्यस्य वा (स्वनः) आनन्दप्रवाहस्य ज्ञानप्रवाहस्य वा शब्दः (वृष्टेः स्वनः इव) वृष्टेः शब्दः इवास्ति, तम् अहम्, (शृण्वे) शृणोमि। (दिवि) आकाशे इव ममात्मनि (विद्युतः चरन्ति) सौदामिन्यः इव अध्यात्मज्योतींषि चलन्ति ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा वर्षाकाले सस्वनं मेघाद् वारिधाराः पतन्ति विद्युतश्च विद्योतन्ते तथैवाचार्यसकाशाज्ज्ञानप्रवाहे सति शब्दा आचार्यमुखान्निस्सरन्ति ज्ञानग्राहके जीवात्मनि च ज्ञानज्योतीषिं दीप्यन्ते। तथैव परमात्मनः सकाशादानन्दरसप्रवाहेऽपि दिव्यः कश्चन वृष्टिस्वन इव श्रूयतेऽलौकिकानि ज्योतींषि चाप्यनुभूयन्ते ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४१।३।