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त꣣र꣢णि꣣रि꣡त्सि꣢षासति꣣ वा꣢जं꣣ पु꣡र꣢न्ध्या यु꣣जा꣢ । आ꣢ व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ पुरुहू꣣तं꣡ न꣢मे गि꣣रा꣢ ने꣣मिं꣡ तष्टे꣢꣯व सु꣣द्रु꣡व꣢म् ॥८६७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तरणिरित्सिषासति वाजं पुरन्ध्या युजा । आ व इन्द्रं पुरुहूतं नमे गिरा नेमिं तष्टेव सुद्रुवम् ॥८६७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त꣣र꣡णिः꣢ । इत् । सि꣣षासति । वा꣡ज꣢꣯म् । पु꣡र꣢꣯न्ध्या । पु꣡र꣢꣯म् । ध्या꣣ । युजा꣢ । आ । वः꣣ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । पु꣣रुहू꣢तम् । पु꣣रु । हू꣢तम् । न꣣मे । गिरा꣢ । ने꣣मि꣢म् । त꣡ष्टा꣢꣯ । इ꣣व । सुद्रु꣡व꣢꣯म् । सु꣣ । द्रु꣡व꣢꣯म् ॥८६७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 867 | (कौथोम) 2 » 2 » 13 » 1 | (रानायाणीय) 4 » 4 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २३८ क्रमाङ्क पर परमेश्वर और राजा के विषय में व्याख्यात की जा चुकी है। यहाँ धनदाता की प्रशंसा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(तरणिः इत्) आपत्ति में पड़े हुओं को दुःखों से तराने की इच्छावाला मनुष्य ही (युजा) सहायकभूत, (पुरन्ध्या) बहुतों का धारण करनेवाली सहानुभूतिपूर्ण बुद्धि से (वाजम्) धन (सिषासति) दूसरों को देना चाहता है। इसलिए मैं (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे जानेवाले (वः) तुम्हारे (इन्द्रम्) धनिक वर्ग को (गिरा) वाणी से, उपदेश के द्वारा (आनमे) झुकाता हूँ, अर्थात् गरीबों को धन देने के लिए प्रवृत्त करता हूँ, (तष्टा इव) जैसे शिल्पी (नेमिम्) रथ के पहिए की परिधि को (सुद्रुवम्) सुचारू रूप से घूमने योग्य बनाता है ॥१॥ यहाँ उपामलङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को चाहिए कि ईश्वरोपासना के साथ धनादि के दान द्वारा दीनों की सहायता भी करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २३८ क्रमाङ्के परमेश्वरनृपत्योर्विषये व्याख्यातपूर्वा। अत्र धनदः प्रशस्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(तरणिः इत्) आपद्गतान् दुःखेभ्यः तारयितुकाम एव जनः (युजा) सहायभूतया (पुरन्ध्या) बहुधारिकया सहानुभूतिपूर्णया धिया (वाजम्) धनम् (सिषासति) अन्येभ्यो दातुमिच्छति। [सनितुं दातुमिच्छतीति सिषासति। षणु दाने सन्नन्तं रूपम्।] अतोऽहम् (पुरुहूतम्) बहुभिराहूतम् (वः) युष्माकम् (इन्द्रम्) धनिकं जनम् (गिरा) वाचा (आनमे) आनमये, निर्धनेभ्यो धनं दातुम् सुप्रवर्तये, (तष्टा इव) शिल्पकारो यथा (नेमिम्) रथचक्रवलयम् (सुद्रुवम्) सुप्रवर्तनयोग्यां करोति तद्वत्। [सुष्ठु द्रवतीति सुद्रुः तां सुद्रुवम्] ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यैरीश्वरोपासनया सह धनादिदानेन दीनानां साहाय्यमपि विधेयम् ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ७।३२।२०, ‘सुद्रुवम्’ इत्यत्र ‘सुद्र्व॑म्’ इति पाठः। साम० २३८। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्तेरन्निति विषये व्याख्यातवान्।