व꣣यं꣡ घ꣢ त्वा सु꣣ता꣡व꣢न्त꣣ आ꣢पो꣣ न꣢ वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषः । प꣣वि꣡त्र꣢स्य प्र꣣स्र꣡व꣢णेषु वृत्रह꣣न्प꣡रि꣢ स्तो꣣ता꣡र꣢ आसते ॥८६४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः । पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते ॥८६४॥
व꣣य꣢म् । घ꣡ । त्वा । सुता꣡व꣢न्तः । आ꣡पः꣢꣯ । न । वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषः । वृ꣣क्त꣢ । ब꣣र्हिषः । पवि꣡त्र꣢स्य । प्र꣣स्र꣡व꣢णेषु । प्र꣣ । स्र꣡व꣢꣯णेषु । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । प꣡रि꣢꣯ । स्तो꣣ता꣡रः꣢ । आ꣣सते ॥८६४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २६१ क्रमाङ्क पर परमेश्वरोपासना विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ आचार्य का विषय वर्णित है।
पुत्रों को गुरुकुल में प्रविष्ट कराने के लिए उनके साथ आए हुए पितृजन आचार्य को कह रहे हैं—हे आचार्यप्रवर ! (वृक्तबर्हिषः) जिन्होंने अन्तरिक्ष को छोड़ दिया है, ऐसे (आपः न) बादल के जलों के समान (वृक्तबर्हिषः) घरों को छोड़कर आये हुए, (सुतवन्तः) पुत्रों सहित (वयम्) हम लोग (त्वा घ) आपको ही प्राप्त हुए हैं। हे (वृत्रहन्) दोषों को मारनेवाले श्रेष्ठ आचार्य ! (स्तोतारः) समित्पाणि होकर आपके पास आये हुए, आपके गुणों का गान करनेवाले शिष्यजन (पवित्रस्य) विशुद्ध ज्ञान और विशुद्ध आचरण के (प्रस्रवणेषु) प्रवाहों में (परि आसते) तैरा करते हैं। अतः हमारे पुत्रों का भी उपनयन संस्कार करके इन्हें विद्वान् बनाइये, यह भाव है ॥१॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है। कारणरूप उत्तरार्ध वाक्य से कार्यरूप पूर्वार्ध वाक्य का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास भी है ॥१॥
सब माता-पिताओं को चाहिए कि अपने बालकों वा बालिकाओं को आचार्य वा आचार्या के पास सौंपकर उन्हें विद्वान् और विदुषियाँ बनायें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २६१ क्रमाङ्के परमेश्वरोपासनाविषये व्याख्याता। अत्राचार्यविषयो वर्ण्यते।
पुत्रान् गुरुकुले प्रवेशयितुं तैः सहागताः पितरः आचार्यं ब्रुवते—हे आचार्यप्रवर ! (वृक्तबर्हिषः) परित्यक्तान्तरिक्षाः (आपः न) मेघजलानि इव (वृक्तबर्हिषः) परित्यक्तगृहाः२ (सुतवन्तः) पुत्रैः सहिताः (वयम्) पितरः (त्वा घ) त्वां खलु प्राप्ताः स्मः। हे (वृत्रहन्) दोषाणां हन्तः आचार्यश्रेष्ठ ! (स्तोतारः) समित्पाणयो भूत्वा त्वत्सकाशमागताः त्वद्गुणान् गातारः शिष्याः (पवित्रस्य) विशुद्धस्य ज्ञानस्य आचरणस्य च (प्रस्रवणेषु) प्रवाहेषु (परिआसते) परिप्लवन्ति। अतोऽस्मत्पुत्रानुपनीय विदुषः कुर्विति भावः ॥१॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। कारणरूपेणोत्तरार्द्धवाक्येन कार्यरूपस्य पूर्वार्द्धवाक्यस्य समर्थनादर्थान्तरन्यासोऽपि ॥१॥
सर्वैर्मातापितृभिः स्वबालकान् स्वबालिकाश्चाचार्यस्याचार्याया वा सकाशे समर्प्य ते ताश्च विद्वांसो विदुष्यश्च कार्याः ॥१॥