य꣡द्वाहि꣢꣯ष्ठं꣣ त꣢द꣣ग्न꣡ये꣢ बृ꣣ह꣡द꣢र्च विभावसो । म꣡हि꣢षीव꣣ त्व꣢द्र꣣यि꣢꣫स्त्वद्वाजा꣣ उ꣡दी꣢रते ॥८६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यद्वाहिष्ठं तदग्नये बृहदर्च विभावसो । महिषीव त्वद्रयिस्त्वद्वाजा उदीरते ॥८६॥
य꣢त् । वा꣡हि꣢꣯ष्ठम् । तत् । अ꣣ग्न꣡ये꣢ । बृ꣣ह꣢त् । अ꣣र्च । विभावसो । विभा । वसो । म꣡हि꣢꣯षी । इ꣣व । त्व꣢त् । र꣣यिः꣢ । त्वत् । वा꣡जाः꣢꣯ । उत् । ई꣣रते ॥८६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमात्मा को हृदय से निकला हुआ स्तोत्र ही अर्पित करना चाहिए।
(यत्) जो स्तोत्र (वाहिष्ठम्) हृदयगत भक्तिभाव का अतिशय वाहक हो (तत्) वही (अग्नये) तेजःस्वरूप परमात्मा के लिए, देय होता है। तदनुसार, हे (विभावसो) तेजोधन जीवात्मन् ! तू उस परमात्मा की (बृहत्) बहुत (अर्च) पूजा कर। हे परमात्मन् ! (त्वत्) आपके पास से (महिषी इव) महती भूमि के समान (रयिः) समस्त धन तथा (त्वत्) आपके पास से (वाजाः) अन्न और बल (उदीरते) उत्पन्न होते हैं ॥६॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विशाल पृथिवी तुझसे उत्पन्न होती है, वैसे ही तुझसे रयि और वाज भी उत्पन्न होते हैं, यह भाव है ॥६॥
जैसे परमात्मा ने हमारे उपकार के लिए भूमि रची है, वैसे ही सब धन-धान्य आदि और बल-पराक्रम, सद्गुण आदि भी हमें दिए हैं। इसलिए हार्दिक भक्तिभाव से उसकी वन्दना करनी चाहिए ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमात्मने हृद्यं स्तोत्रमर्पणीयमित्युच्यते।
(यत्) स्तोत्रम् (वाहिष्ठम्) वोढृतमम्, अतिशयेन सहृदयगतभक्ति- भावस्य प्रापकम् भवेत् (तत्) स्तोत्रम् (अग्नये) तेजःस्वरूपाय परमात्मने, देयमिति शेषः। तदनुसारम् हे (विभावसो) दीप्तिधन जीवात्मन् ! त्वं परमात्मानम् (बृहत्) बहु (अर्च) पूजय। हे परमात्मन् ! (त्वत्) तव सकाशात् (महिषी२ इव) महती भूमिरिव। महिष इति महन्नाम। निघं० ३।३, ततः स्त्रियां महिषी। भूरिति महिषी। तै० ब्रा० ३।९।४।५। (रयिः) सर्वं धनम्, (त्वत्) तव सकाशात् (वाजाः) अन्नानि बलानि च (उदीरते) उद्गच्छन्ति, उत्पद्यन्ते। उत् पूर्वः ईर गतौ कम्पने च, ततः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने रूपम् ॥६॥३ अत्रोपमालङ्कारः। यथा महती पृथिवी त्वद् उदीर्ते, तथा त्वद् रयिर्वाजाश्च उदीरते इति भावः ॥६॥
यथा परमात्मनाऽस्माकमुपकाराय भूमी रचिता, तथैव निखिलं धनधान्यादिकं बलपराक्रमसद्गुणादिकं चाप्यस्मभ्यं प्रदत्तमस्ति। अतो हार्दिकेन भक्तिभावेन स सवैर्वन्दनीयः ॥६॥