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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: सप्तर्षयः छन्द: द्विपदा विराट् स्वर: पञ्चमः काण्ड:

नृ꣡भि꣢र्येमा꣣णो꣡ ह꣢र्य꣣तो꣡ वि꣢चक्ष꣣णो꣡ राजा꣢꣯ दे꣣वः꣡ स꣢मु꣣꣬द्र्यः꣢꣯ ॥८५८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

नृभिर्येमाणो हर्यतो विचक्षणो राजा देवः समुद्र्यः ॥८५८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नृ꣡भिः꣢꣯ । ये꣣मानः꣢ । ह꣣र्यतः꣢ । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ । रा꣡जा꣢꣯ । दे꣣वः꣢ । स꣣मुद्र्यः꣢ । स꣢म् । उद्र्यः꣢ ॥८५८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 858 | (कौथोम) 2 » 2 » 9 » 3 | (रानायाणीय) 4 » 3 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(नृभिः) नेता गुरुजनों से (येमाणः) नियन्त्रण में रखा जाता हुआ, (हर्यतः) प्रिय, (राजा) तेज से देदीप्यमान, (समुद्र्यः) ब्रह्मचर्याश्रमरूप समुद्र में निवास करता हुआ ब्रह्मचारी (देवः) दिव्य गुणों से युक्त, और (विचक्षणः) विद्वान् हो जाता है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

गुरुकुल में गुरुजनों के सान्निध्य में निवास करता हुआ ब्रह्मचारी विद्वान् और सदाचारी होकर स्नातक बनता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(नृभिः) नेतृभिः गुरुजनैः (येमाणः) नियम्यमानः, (हर्यतः) प्रियः, (राजा) तेजसा राजमानः, (समुद्र्यः) ब्रह्मचर्याश्रमरूपे समुद्रे निवसन् ब्रह्मचारी (देवः) दिव्यगुणयुक्तः, (विचक्षणः) विद्वांश्च भवतीति शेषः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

गुरुकुले गुरुजनानां सान्निध्ये वसन् ब्रह्मचारी विद्वान् सदाचारी च भूत्वा स्नातको जायते ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०७।१६, ‘येमा॒नो’ इति ‘स॑मुद्रि॑यः’ इति च पाठः।