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त꣡र꣢त्समु꣣द्रं꣡ पव꣢꣯मान ऊ꣣र्मि꣢णा꣣ रा꣡जा꣢ दे꣣व꣢ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् । अ꣡र्षा꣢ मि꣣त्र꣢स्य꣣ व꣡रु꣢णस्य꣣ ध꣡र्म꣢णा꣣ प्र꣡ हि꣢न्वा꣣न꣢ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥८५७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तरत्समुद्रं पवमान ऊर्मिणा राजा देव ऋतं बृहत् । अर्षा मित्रस्य वरुणस्य धर्मणा प्र हिन्वान ऋतं बृहत् ॥८५७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त꣡रत्꣢꣯ । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उद्र꣢म् । प꣡व꣢꣯मानः । ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ । रा꣡जा꣢꣯ । दे꣣वः꣢ । ऋ꣣त꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । अ꣡र्ष꣢꣯ । मि꣣त्र꣡स्य꣢ । मि꣣ । त्र꣡स्य꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णस्य । ध꣡र्म꣢꣯णा । प्र । हि꣣न्वानः꣢ । ऋ꣣त꣢म् । बृ꣣ह꣢त् ॥८५७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 857 | (कौथोम) 2 » 2 » 9 » 2 | (रानायाणीय) 4 » 3 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में स्नातक का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

शिष्य (राजा) तेज से दीप्त तथा (देवः) विद्वान् होता हुआ (बृहत् ऋतम्) महान् सत्य ज्ञान, सत्य आचरण और सत्य ब्रह्मानन्द को (ऊर्मिणा) तरङ्गरूप में (पवमानः) अपने आत्मा में प्रवाहित करता हुआ (समुद्रम्) ब्रह्मचर्याश्रमरूप समुद्र को (तरत्) तैर जाता है, अर्थात् स्नातक बन जाता है। आगे प्रत्यक्षरूप से वर्णन है—हे विद्वान् स्नातक ! तू (मित्रस्य) मैत्री के निर्वाहक तथा (वरुणस्य) शिष्य रूप में तुझे वरनेवाले आचार्य के (धर्मणा) उपदिष्ट धर्म के अनुसार, जनसमाज में (बृहत्) महान् सत्यज्ञान, सत्य आचरण और सत्य ब्रह्मानन्द को (हिन्वानः) प्रेरित करता हुआ (अर्ष) गति कर, व्यवहार कर ॥२॥ अथर्ववेद में स्नातक का वर्णन इस रूप में किया गया है—ब्रह्मचारी देदीप्यमान ज्ञान को अपने अन्दर धारण करता है। उसके अन्दर सब दिव्य गुण समाविष्ट हो जाते हैं। हे ब्रह्मचारी, तू प्राण, अपान, व्यान, वाणी, मन, हृदय, ब्रह्म, मेधा इन सबकी शक्ति को अपने अन्दर उत्पन्न करता हुआ हमें भी चक्षु, श्रोत्र, यश, अन्न, रेतस्, रक्त एवं पाचनशक्ति प्रदान कर। इन सब शक्तियों को ब्रह्मचारी ज्ञानसलिल के पृष्ठ ब्रह्मचर्याश्रमरूप समुद्र में तप करता हुआ प्राप्त करता है। वह जब स्नातक बनता है तब अन्यों का धारक-पोषक और पीतवेषधारी होकर पृथिवी पर बहुत चमकता है। (अथ० ११।५।२४-२६) ॥

भावार्थभाषाः -

स्नातकों को चाहिए कि गुरुओं से अध्ययन किये हुए सब लौकिक और आध्यात्मिक ज्ञान को समाज में फैलाएँ ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ स्नातको वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

शिष्यः (राजा) तेजसा राजमानः (देवः) विद्वांश्च सन् (बृहत् ऋतम्) महत् सत्यज्ञानं सत्याचरणं सत्यं ब्रह्मानन्दं च (ऊर्मिणा) तरङ्गेण (पवमानः) स्वात्मनि प्रवाहयन् (समुद्रम्) ब्रह्मचर्याश्रमरूपम् अर्णवम् (तरत्) तरति, स्नातको भवति। सम्प्रति प्रत्यक्षकृतमाह—हे विद्वन् स्नातक ! त्वम् (मित्रस्य) मैत्रीनिर्वाहकस्य, (वरुणस्य) शिष्यरूपेण तव वरणकर्तुः आचार्यस्य (धर्मणा) उपदिष्टधर्मानुसारम्, जनसमाजे (बृहत्) महत् सत्यज्ञानं सत्याचरणं सत्यं ब्रह्मानन्दं च (हिन्वानः) प्रेरयन् (अर्ष) गच्छ, व्यवहर। [ऋषी गतौ, तुदादिः] ॥२॥ अथर्ववेदः स्नातकं वर्णयन्नेवमाह—ब्र॒ह्म॒चा॒री ब्रह्म॒ भ्राज॑द् बिभर्ति॒ तस्मि॑न् दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ स॒मोताः॑। प्रा॒णा॒पा॒नौ ज॒नय॒न्नाद् व्या॒नं वाचं॒ मनो॒ हृद॑यं॒ ब्रह्म॑ मे॒धाम् ॥ चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ यशो॑ अ॒स्मासु॑ धे॒ह्यन्नं॒ रेतो॒ लोहि॑तमु॒दर॑म् ॥ तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत् त॒प्यमा॑नः समुद्रे। स स्ना॒तो ब॒भ्रुः पि॑ङ्ग॒लः पृ॑थि॒व्यां ब॒हु रो॑चते। (अथ० ११।५।२४-२६) इति ॥

भावार्थभाषाः -

स्नातकैर्गुरुभ्योऽधीतं सर्वमपि लौकिकमाध्यात्मिकं च ज्ञानं समाजे प्रसारणीयम् ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०७।१५ ‘अर्षा’ इत्यत्र ‘अर्ष॑न्’ इति पाठः।