ह꣣थो꣢ वृ꣣त्रा꣡ण्यार्या꣢꣯ ह꣣थो꣡ दासा꣢꣯नि सत्पती । ह꣣थो꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣡षः꣢ ॥८५५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)हथो वृत्राण्यार्या हथो दासानि सत्पती । हथो विश्वा अप द्विषः ॥८५५॥
ह꣣थः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । आ꣡र्या꣢꣯ । ह꣣थः꣢ । दा꣡सा꣢꣯नि । स꣣त्पती । सत् । पतीइ꣡ति꣢ । ह꣡थः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ ॥८५५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।
हे (सत्पती) श्रेष्ठों के पालनकर्ता परमात्मा और जीवात्मा ! (आर्या) श्रेष्ठ तुम दोनों (वृत्राणि) पापों को (हथः) विनष्ट करते हो, (दासानि) क्षय करनेवाले काम, क्रोध आदियों को (हथः) विनष्ट करते हो और (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेष-वृत्तियों को (अप हथः) मार भगाते हो ॥३॥ यहाँ ‘हथो’ की तीन बार आवृत्ति में लाटानुप्रास है। पुनः-पुनः ‘हथः’ कहने से यह द्योतित होता है कि इसी प्रकार अन्य भी दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःख आदियों को तुम विनष्ट करते हो ॥३॥
हमें चाहिए कि परमात्मा और जीवात्मा की सहायता से पाप आदियों को नष्ट करके द्वेषवृत्तियों को समाप्त करके आपस में सौहार्द से वर्तें ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा और यज्ञ, ब्रह्म और क्षत्र, जीवात्मा और प्राण, जीवात्मा के पुनर्जन्म, प्राणायाम, परमात्मा और जीवात्मा के सम्बन्ध आदि का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चतुर्थ अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयं प्राह।
हे (सत्पती) सतां श्रेष्ठानां पालकौ परमात्मजीवात्मानौ ! (आर्या) आर्यौ श्रेष्ठौ युवाम् (वृत्राणि) पापानि (हथः) विनाशयथः, (दासानि) उपक्षपयितॄणि कामक्रोधादीनि (हथः) विनाशयथः, अपि च (विश्वाः) सर्वाः (द्विषः) द्वेषवृत्तीः (अप हथः) अप विनाशयथः ॥३॥२ अत्र ‘हथो’ इत्यस्य त्रिधाऽऽवृत्तौ लाटानुप्रासः। पुनः पुनः ‘हथः’ इति वचनादन्यान्यपि दुर्गुणदुर्व्यसनदुःखादीन्यपहथः इति द्योत्यते ॥३॥
परमात्मजीवात्मनोः साहाय्येनास्माभिः पापादीनि निरस्य द्वेषवृत्तीः समाप्य परस्परं सौहार्देन वर्त्तितव्यम् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मयज्ञयोर्ब्रह्मक्षत्रयोर्जीवात्मप्राणयोर्जीवस्य पुनर्जन्मनः प्राणायामस्य परमात्मजीवात्मनोः सम्बन्धादेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥