इ꣡न्द्रे꣢ण꣣ स꣡ꣳ हि दृक्ष꣢꣯से संजग्मा꣣नो꣡ अबि꣢꣯भ्युषा । म꣣न्दू꣡ स꣢मा꣣न꣡व꣢र्च्चसा ॥८५०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रेण सꣳ हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्च्चसा ॥८५०॥
इ꣡न्द्रे꣢꣯ण । सम् । हि । दृ꣡क्ष꣢꣯से । सं꣣जग्मानः꣢ । स꣣म् । जग्मानः꣢ । अ꣡बि꣢꣯भ्युषा । अ । बि꣣भ्युषा । मन्दू꣡ इति꣢ । स꣣मान꣡व꣢र्चसा । स꣣मान꣢ । व꣣र्चसा ॥८५०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में जीवात्मा और प्राण का विषय है।
हे मरुतों के गण अर्थात् प्राण-गण ! तू (अबिभ्युषा) निर्भय (इन्द्रेण) जीवात्मा के साथ (संजग्मानः) सङ्गत होता हुआ (संदृक्षसे) दिखायी देता है। तुम दोनों अर्थात् प्राण-गण और जीवात्मा (मन्दू) आनन्द देनेवाले, तथा (समानवर्चसा) तुल्य तेजवाले हो ॥१॥
शरीर में जीवात्मा और प्राण दोनों का समान महत्त्व है। प्राण के बिना जीवात्मा और जीवात्मा के बिना प्राण कुछ नहीं कर सकता ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ जीवात्मप्राणविषय उच्यते।
हे मरुतां गण प्राणगण ! त्वम् (अबिभ्युषा) निर्भयेन (इन्द्रेण) जीवात्मना (संजग्मानः) संगच्छमानः (संदृक्षसे) संदृश्यसे। [संपूर्वाद् दृश धातोः लडर्थे लेटि अडागमे सिबागमे रूपम्।] युवाम् (मन्दू) आनन्दप्रदौ [मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, भ्वादिः, ततो बाहुलकादौणादिकः कुः प्रत्ययः।] किञ्च (समानवर्चसा) समानवर्चसौ तुल्यतेजस्कौ स्थः इति) शेषः ॥१॥२ निरुक्ते यास्काचार्येण मन्त्रोऽयमेवं व्याख्यातः—[इन्द्रेण हि सन्दृश्यसे संगच्छमानोऽबिभ्युषा गणेन। मन्दू मदिष्ण युवां स्थः, अपि वा मन्दुना तेनेति स्यात्, समानवर्चसेत्येन व्याख्यातम्। निरु० ४।१२।]
देहे जीवात्मप्राणयोरुभयोरपि समं महत्त्वम्। प्राणं विना जीवात्मा जीवात्मानं विना च प्राणोऽकिञ्चित्करः खलु ॥१॥