पु꣣नानो꣢ दे꣣व꣡वी꣢तय꣣ इ꣡न्द्र꣢स्य याहि निष्कृ꣣त꣢म् । द्यु꣣तानो꣢ वा꣣जि꣡भि꣢र्हि꣣तः꣢ ॥८४३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पुनानो देववीतय इन्द्रस्य याहि निष्कृतम् । द्युतानो वाजिभिर्हितः ॥८४३॥
पु꣣ना꣢नः । दे꣣व꣢वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । या꣣हि । निष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् । द्यु꣣ता꣢नः । वा꣣जि꣡भिः꣢ । हि꣣तः꣢ ॥८४३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में विद्यार्थी को सम्बोधन किया गया है।
हे विद्यार्थी ! तू (देववीतये) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, न्याय, दया, उदारता आदि दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (पुनानः) स्वयं को पवित्र करता हुआ (इन्द्रस्य) कुलपति आचार्य के (निष्कृतम्) घर अर्थात् गुरुकुल को (याहि) जा और वहाँ (हितः) प्रविष्ट किया गया तू (वाजिभिः) विज्ञानी गुरुओं के द्वारा (द्युतानः) विद्या के तेज से और सच्चरित्रता के तेज से चमकनेवाला बन ॥३॥
विद्यार्थी गुरुकुल में ब्रह्मचर्यपूर्वक विधि के अनुसार वेदादि शास्त्रों को पढ़कर, सदाचार की शिक्षा लेकर, योगाभ्यास से आध्यात्मिक उन्नति करके, विद्वान् होकर, समावर्तन के बाद बाहर जाकर पढ़ी हुई विद्या का सब जगह प्रचार करें ॥३॥ इस खण्ड में उपासक, योगी, परमात्मा, गुरु-शिष्य और प्रसङ्गतः राजा, चन्द्रमा आदि के विषय का प्रतिपादन होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चतुर्थ अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ विद्यार्थिनं सम्बोधयति।
हे विद्यार्थिन् ! त्वम् (देववीतये) अहिंसासत्यास्तेयन्यायदया- दाक्षिण्यादीनां दिव्यगुणानां प्राप्तये (पुनानः) स्वात्मानं पवित्रयन् (इन्द्रस्य) कुलपतेराचार्यस्य (निष्कृतम्) गृहम्, गुरुकुलमित्यर्थः (याहि) गच्छ। तत्र च (हितः) स्थापितः प्रवेशितः त्वम् (वाजिभिः) विज्ञानवद्भिः गुरुभिः (द्युतानः) विद्यातेजसा सच्चारित्र्यतेजसा च द्योतमानो भवेति शेषः ॥३॥
विद्यार्थिनो गुरुकुले ब्रह्मचर्यपूर्वकं यथाविधि वेदादिशास्त्राण्यधीत्य सदाचारशिक्षां गृहीत्वा योगाभ्यासेनाध्यात्मिकीमुन्नतिं विधाय विद्वांसो भूत्वा समावर्तनानन्तरं बहिर्गत्वाऽधीतां विद्यां सर्वत्र प्रचारयेयुः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे उपासकयोगिपरमात्मगुरुशिष्यविषयाणां प्रसङ्गतश्च नृपतिचन्द्रादिविषयाणां प्रतिपादनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥